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सौहार्द बनाम मानवतावादी ऊँची सोच

शशि दीपक कपूर
मुंबई (महाराष्ट्र)
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विश्व सौहार्द दिवस स्पर्धा विशेष….

‘धर्मों रक्षति रक्षति:,तयो धर्मस्ततो जय:।’ अर्थात् राष्ट्र धर्म से बड़ा कोई धर्म नहीं होता है।
‘जो भरा नहीं है भावों से,बहती जिसमें रसधार नहीं, वह हृदय नहीं पत्थर है,जिसमें ‘स्वदेश’ से प्यार नहीं।’ स्वतंत्रता प्राप्ति के २९ वर्ष के बाद १९७६ में भारतीय संविधान के ४२वें संशोधन के साथ प्रस्तावना संविधान में भारत को ‘धर्मनिरपेक्ष’ देश घोषित किया गया। संवैधानिक तौर पर यह ‘धर्म- निरपेक्षता‘ सन् १९४७ के विभाजन के छिड़के गए नमकीन ज़ख़्मों को भुलाने का प्रमाण व विश्व एकता का संदेश देने में सिद्ध हुई है। स्वतंत्रता-प्रप्ति के पश्चात अल्प-संख्यक समुदाय की सुरक्षा के लिए संवैधानिक आश्रय निश्चित किया गया,जो भारत की एकता का सूत्रधार बन चुका है। शासन व प्रशासन ने अनेक नियम,क़ानून व वैचारिक सिद्धांत आदि से भी राष्द्र नव-निर्माण के दृढ़-स्तंभ बनाए हैं। भारत ही पूरे विश्व में एक ऐसा देश है,जहाँ विभिन्न समुदाय,धर्म के नागरिक अपनी-अपनी जीवन-शैली को सुचारु रुप से चलाने के लिए बिना किसी बैर-विरोध के आपसी मेल-जोल व एकजुटता से रहते हैं।
भारत के उदारवादी दृष्टिकोण के प्रमाण-मौर्य-काल में सम्राट अशोक द्वारा व्यापार के उद्देश्य से विदेशी लोगों का आगमन,बौद्ध-धर्म की शिक्षा,धार्मिक नीतियाँ,आपसी रिश्तों व आस-पास के राजाओं से युद्ध कर राज्य-विस्तार की उठा-पटक के बीच की गाथा आदि स्तंभ व शिलालेख आज भी वही कथ्य दोहरा रहें हैं। नागरिकों में सौहार्द भावना होनी चाहिए,भले ही राजनीति के युद्ध स्तर पर मानव-मानव का ही शत्रु बन जाए। हालाँकि,प्राचीन समय में भी देवताओं व राक्षसों के आपसी युद्ध के प्रमाण मिलते हैं। यह अलग बात है कि आज भी संपूर्ण मानव-जाति मानवतावादी नीति को धर्म की आड़ में तिलांजलि व चेतावनी कभी-कभार दे ही देती है। सन् १८५७ की अंग्रेज़ी विद्रोह की क्रांति में हिन्दू-मुस्लिम की एकजुटता और न ही भुला सकते हैं औरंगज़ेब द्वारा हिन्दुओं पर किए अत्याचार को। इसी कारण आज की संवैधानिक लोकतांत्रिक व्यवस्था में ‘भारत का प्रत्येक नागरिक पहले भारतीय है।‘ समय गतिमान है,सबको यह मानना ही होगा-‘सुना धर्म क्या है ?,ओह! सदाचार है, मनुष्य की मनुष्यता का श्रेष्ठ आहार है।’
हमारे देश को प्रकृति द्वारा दी गई भागौलिक विभिन्नता की संपन्नता युगों से सदैव विदेशियों के आकर्षण का केन्द्र रही है। प्राचीन काल से ही विदेशी लोग व्यापार करने व वस्तुओं के आदान-प्रदान करने के बहाने शनै:-शनै: अपनी जड़ें हमारी ऋषि भूमि पर सुदृढ़ करते गए,जिस कारण आज देश में बहुधर्म,बहुभाषी,बहुजाति व बहुसंस्कृति के दर्शन होते हैं। हमारे ऋषि-मुनियों के उदारवादी ज्ञान ने समस्त जन-समूह को प्रेम करना,कर्तव्य परायण बनना,अहिंसावादी और अन्य धर्मों को सम्मान दृष्टि से देखना आदि की प्रेरणा प्रदान की है। नि:संदेह,इस अमूल्य धरोहर द्वारा दिए गये संदेश ‘एकता’ को आज संपूर्ण विश्व आश्चर्य से निहारता है। इक़बाल की पंक्तियाँ आज भी विश्व को यह सोचने पर बाध्य करती हैं-‘यूनान-ओ-मिस्त्र रोनां,सब मिट गये जहाँ से,कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।
‘अनेकता में एकता’ को रचती भारत की अदभुत भूमि है। साहित्य,संगीत व अन्य कलाओं के क्षेत्र में सब समुदाय,धर्म के लोग एक ही वाद्य-यंत्र से ही बजते हैं,माँ सरस्वती की आराधना करते दिखाई पड़ते और मस्जिद में चादर चढ़ाते व अजान देते, चर्च में मोमबत्ती से पिघलते और गुरुद्वारे में सेवा भी करते हैं। इससे अधिक लुभावना मनमोहक सौहार्दपूर्ण वातावरण किसी और देश में कहाँ है ? न जाने अचानक से इतने ख़ुशनुमा माहौल में कौन विषैली बातों की गैस छोड़ दूषित कर देता है ? अत: यह विविधता बार-बार यही कहती है,-‘चलते रहिए ऊँचाइयों को छूते रहिए,भारत है,भारतीयता है,इसी बीच विभिन्न-धर्मों,आचार-विचारों का समूह बनाते रहिए।’
सभी धर्मों का एक ही सार है-‘मानवता से स्नेह।’ सच में,धर्म की परिभाषा यही है-धर्म वही है जो मानव को मानव के ह्रदय से जोड़े। भारत में फैलते-पनपते सर्वधर्मों का मूल कारण है-प्रत्येक नागरिक की उदारवादिता और संविधान के अधिनियम में दी गई धार्मिक स्वतंत्रता। राष्ट्र में सौहार्द बनाए रखने के लिए आवश्यक है-प्रत्येक नागरिक का अपने देश के प्रति कर्तव्यनिष्ठता और सम-भाव।
वर्तमान समय न तो ऐयाशी महाराजाओं-महाराणाओं का है,न ही उपनिवेशवाद का। भारत की राजनीतिक व्यवस्था का प्रमुख आधार जनता द्वारा चुनी हुई ‘लोकतंत्र-व्यवस्था’ है। वर्तमान परिवेश में भविष्य की नींव रखने के उद्देश्य से भारत के प्रत्येक नागरिक को यही कहना चाहिए-‘ आओ मिलकर बनाएँ,अपने भविष्यकाल सम्मोहित संध्याएँ,अपनी भूमि को पूजें प्रेरणाएँ,अपने लोगों में फैली सौहार्द अपेक्षाएँ,ताकि आने वाले युग में,जब बहें उल्टी प्राण-वायु,तब पूछ-पूछ छन-छन रखें, प्रतिभावान छायाएँ।’
मानवतावादी दृष्टिकोण का निर्माण तो बालपन की आरंभिक शिक्षा है,जहाँ ‘सौहार्द’ की शिक्षा में सर्व-धर्म सम-भाव,मानवता की सेवानिवृत्ति,परोपकार, दया-क्षमा,प्रेम-सहानुभूति जैसे गुणों का बीजारोपण किया जाता है। एक अच्छे नागरिक में ये गुण होने बहुत आवश्यक हैं।
संक्षेप में यही मानना है कि सौहार्द के लिए मानवतावादी दृष्टि ही संपूर्ण मानव-जाति के कल्याण का एक सर्वोत्तम साधन है। ‘सौहार्द नदी की बाढ़ बन जाए,ऐसा माहौल बनाएँ,असामाजिक तत्व हों कितने भी प्रबल,सब एक आँख दिखाने से झुक जाएँ।’

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