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स्त्रियाँ और चट्टानें

डॉ. विद्या ‘सौम्य’
प्रयागराज (उत्तर प्रदेश)
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स्त्रियाँ…
टूटती नहीं हैं, तोड़ दी जाती हैं,
गुजरते वक़्त की मार से जैसे-
मार्ग में पड़ी कोई चट्टान,
लगातार सहते आघातों से
रेत हो जाती है, वैसे ही…
बहुत धीरे से, मौन के बीच, विश्वास तले,
मिट्टी के घड़े-सी चूर हो जाती हैं।

स्त्रियाँ…
काँच की तरह, बिखरती नहीं है,
बस… खुद को समेटना छोड़ देती हैं
जैसे कोई प्राचीन पांडुलिपि,
समय की नमी से गलने लगती है
वैसे ही, उपेक्षा से, हर झूठे वादे से,
उसकी आत्मा की चमक धीरे-धीरे
धुंधली पड़ जाती है।

स्त्रियाँ…
मिटती नहीं हैं,
ठोकरों से क्षरित कर दी जाती हैं
उसके भीतर के समुद्र में,
तैरते हजारों सपनें और खुशियों पर
जब तौहीन कर फेंके गए पत्थर,
वह भीतर ही भीतर, अपना वजूद खो देती है।
पर खंडित होकर भी किसी,
मंदिर की देवी-सी और दिव्य होकर स्वयं को…
एक नए सांचे में गढ़ने लगती है॥