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स्वयं को लिख रही

सरोजिनी चौधरी, जबलपुर (मप्र)
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विगत दिनों को आमंत्रित कर,
जीवन का इतिहास लिख रही
यादें कोई छूट न जाएँ,
स्वयं को ख़ुद से आज लिख रही।

लिया एक दीपक हाथों में,
यादों से जो भरा हुआ था
उसकी उज्ज्वल ज्योति में मेरे,
सपनों का सुख छिपा हुआ था।

आशाओं से भरी हुई थी,
यौवन के क्षण-क्षण की बातें
कुछ पल अपने ख़ास बहुत थे,
होती थीं जब प्यार की बातें।

कुछ मस्ती और ख़्वाब की बातें,
कुछ खट्टी-मीठी सी यादें
कुछ पल तेरे नाम किए थे,
वे मेरी अपनी सौग़ातें।

आशाएँ कुछ अधिक नहीं थीं,
फिर भी मुश्किल सदा बड़ी थी
एक समस्या मैं हल करती,
दूजी आ कर खड़ी हुई थी।

बीता बचपन यौवन बीता,
प्रौढ़ावस्था में जब आयी
जिसे निभाना साथ था मेरा,
उसकी ही हो गई बिदाई।

भ्रमित अवस्था थी मेरी तब,
सोचूँ किधर-कहाँ जाऊँ!
पत्थर-सी बन गई थी मैं तब,
कहाँ रोशनी मैं पाऊँ?

पठन किया साहित्य का मैंने,
कई पुस्तकें पढ़ डालीं
मन के दर्पण में मैंने तब,
भावी छवि निर्मित कर डाली।

प्रथम स्थान कर्म को देकर,
भावी जगत किया तब कल्पित।
निखिल विचार विवेक तर्क सब,
भावी कर्म को किया समर्पित॥