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स्वार्थ का पर्दा ऐसा फैला…

सीमा जैन ‘निसर्ग’
खड़गपुर (प.बंगाल)
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कहाँ गया रिश्तों से प्रेम…

स्वार्थ का पर्दा ऐसा फैला  
भूला रिश्तों की कुशलक्षेम,
मूर्ख ताकते हमने ढूंढा 
कहाँ गया रिश्तों से प्रेम।

संयुक्त परिवार अब नहीं मिलते 
एकसाथ अब भाई नहीं पलते, 
कहाँ खोया बचपन का प्रेम 
क्यों नहीं सब आपस में खिलते। 

एक थाल में खा लेते थे 
एकसाथ सब पढ़ लेते थे,
मिल-जुल कर जाने कितने ही 
कठिन किले फ़तह करते थे।

सखा-दोस्त सब भाई होता 
गाँव में भाई-चारा होता,
दाल-रोटी जहां मिल जाए 
सबका वहीं ठिकाना होता।

दादी, चाची, मामी, बुआ 
रिश्तों की थी ढेरों पुड़िया,
चचेरे, ममेरे शब्द लजाते
कितनी सादी थी वो दुनिया।

सहने की शक्ति गुम हो गई 
शब्दों की मिठास कम हो गई, 
स्नेहसिक्त स्पर्श की डाली 
बिना खाद के ठूंठ हो गई। 

चाहा हमने खूब संजोना 
रिश्तों का सुंदर हार बनाना, 
लेकिन इत्र-सा उड़-उड़ जाए 
गहरे रिश्तों से प्रेम-नगीना।

अंतिम चिताएं धधक रही है,
रिश्तों को यूँ लील रही है।
चादर तान अकड़ती दुनिया,
निश्चिंत होकर सो रही है॥