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हमारा सम्मान-स्वाभिमान ‘भारत’ से है, ‘इंडिया’ से नहीं

डॉ. सुभाष शर्मा
मेलबॉर्न (ऑस्ट्रेलिया)
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विचार कीजिए मेरा नाम राम है, आपका रहीम या उसका नाम राबर्ट ही क्यों है। यदि राम को राबर्ट या रहीम को राम के नाम से बुलाएं तो क्या कोई फर्क पड़ेगा ? उत्तर, हाँ, पड़ेगा। क्या फर्क पड़ेगा इसका अनुमान इससे लगाइए कि मैं आपको भरे बाजार में ओसामा बिन लादेन कह के बुलाना शुरू कर दूं। तब क्या होगा ? आप अवश्य चिढ़ेंगे (बशर्तें आप जमीर वाले इंसान हैं और किसी के गुलाम नहीं है)। यही मेरे जैसे विदेश में बसे लोगों का उत्तर होता है, जब हमसे हमारे ही देश भारत के कुछ गिने-चुने लोग कहते हैं कि भारत कहो या इंडिया, यार नाम से क्या फर्क पड़ता है। सच यह है कि आप की चिढ़ और हमारी झुंझलाहट इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है, कि फर्क पड़ता है।
हाँ, कुछ उदासीन प्रवृत्ति के लोग हैं उन्हें कुछ फर्क नहीं पड़ता। उन्हें अपनी रोजी-रोटी से लेना-देना होता है, वे नाम की पंचायत में नहीं पड़ते। उन्हें स्वाभिमान की चिंता नहीं, धन की चिंता रहती है।दूसरी ओर कुछ उल्टी सोच वाले लोग, शराब के दो घूंट के बाद जिन्हें गरीबों की चिंता बुरी तरह सताती है। ऐसे लोगों को अपनी सड़ी विचारधारा, अपनी अधमरी विद्वता से लोगों को भड़काकर देश में गरीब और गरीबी के नाम पर आग लगाने में मजा आता है। भारत की संस्कृति की बात चले तो उसकी खिलाफत करना इनका पेशा बन गया है। जो उदासीन हैं, उनमें से ही कुछ जगाने पर ही जागते हैं और कुछ निर्मोही जिन्हें अपनी रोजी-रोटी और अपने परिवार से मतलब होता है, उनके लिए नाम बदल दो या मत बदलो, फरक नहीं पड़ता। वह नौकरी के लिए अपना तो क्या अपने बाप का भी नाम भी बदल सकते हैं। सामाजिक कार्यों के लिए उनके पास समय नहीं होता।
उदासीनों में भी कुछ लोग आधे जागे और आधे सोए लोग होते हैं। उनके मन में भारत और इंडिया को लेकर अक्सर प्रश्न उठते हैं जैसे:
संविधान में ही दोनों नाम लिखे हैं भारत अर्थात इंडिया। इसलिए, हम सबको संविधान मानना चाहिए। संविधान समाज बनाता है और स्वयं अपने संविधान को अपने सिर पर बिठाता है। जब संविधान बोझा बन जाए, तब आवश्यकता के अनुसार उसमें बदलाव न किए जाएँ, तब जनता उद्वेलित होती है जो जन आंदोलन का रूप ले लेता है जो देश में क्रांति सूचक होता है। संविधान स्वर्ग से आई कोई पुस्तक नहीं है। मानव समूह ने सद्भाव के साथ रहने के लिए कुछ नियम निर्धारित किए होते हैं, यह नियम समय की आवश्यकता और भौगोलिक, धार्मिक, आर्थिक और मानसिक परिस्थितियों पर आधारित होते हैं।
भारत का संविधान जिन परिस्थितियों में लिखा गया, जिन लोगों ने लिखा या लिखवाया अथवा अपनी सहमति दी, यह उस समय की उन लोगों की मनःस्थिति पर भी निर्भर करता है, जिनका संविधान सभा में बहुमत और वर्चस्व था। उनकी झलक संविधान में साफ दिखाई देती है। उन्होंने जो चाहा पारित किया और लिखवाया। आज हमें अपने इतिहास को या संविधान को सुधारने का पूरा अधिकार भी है और अवसर भी, इसलिए हमें क्यों हिचकना चाहिए, पर प्रश्न यह कि क्या फर्क पड़ता है ?
इसका उत्तर इंडिया शब्द के उद्गम से जुड़ा है। जैसे इंग्लैंड में पाकिस्तानियों को पाकी बोलते हैं और पाकी बोलते ही अंग्रेजों के मन में एक चित्र खींचता है दंगा- फसाद करने वाले, गंदे रहने वाले, चाकू चलाने वाले, हेरा-फेरी करने वाले (जैसा एक गरीब अंग्रेज के मुँह से लंदन में मैने सुना)। उसी तरह भारतीयों को इंडी भी कहा जाता है और इंडियन का मतलब गंदे, गरीब, गुलाम डरपोक, मतलबी इत्यादि। इंडिया, भारत का उपनाम है और यह उपनाम उसी से मिलता-जुलता है, जैसे गाँव से भाग कर दिल्ली आए किसी दिल्ली के ढाबे में लोग किसन लाल को कलुआ नाम दे देते हैं और धीरे-धीरे वह खुद भी भूल जाता है, कि वह कभी किसन भी था।
अब प्रश्न उठता है, कि क्या फर्क पड़ता है कोई पाकी कहे, इंडी कहे या कलुआ कहे। सच यह है कि नाम श्रद्धा, उद्देश्य, अर्थ महत्ता को देख कर रखे जाते हैं। उपनाम, मनोरंजन दुर्भाव, सद्भाव अतः जो भी हो, यह नाम आदर भाव से तो रखे नहीं गए। सोचिए किसन जिसके कलुआ नाम सुनते-सुनते कान पक गए हैं, सालों बाद कोई उसको चाँदनी चौक के उस ढाबे पर दूर से पहचान ले और बोले-अरे किसनवा तू यहाँ क्या कर रहा है, तो उसका प्यार से लिपटा ‘किसनवा’ शब्द उसके कानों को कैसा लगेगा। ठीक उसके मुकाबले कि उसे कोई आदर पूर्वक ‘कालुवा’ जी कह कर बुलाए। यह अनुभव हम विदेश में बैठे लोग कर सकते हैं। चलो, हम मान लें कि हमने विदेश आकर किसन से मात्र नौकरी पाने के लिए या नौकरी पर अपने अंग्रेज साथियों को खुश करने को अपना नाम क्रिस रख भी लिया। फिर भी क्या मैं चाहूंगा कि मेरे गाँव के लोग मेरे दादी-दादा, काका-काकी या पड़ोसी हमें क्रिस कह कर बुलाएं और गौरवान्वित हों कि लड़का अंग्रेज बन गया।
प्रश्न तो नाम से पहचान का है, कि वह कलुआ जो खुद भी अपना असली नाम भूल गया, यदि उसे कुछ हो जाए तो वह कलुआ तुम किस जिला या गाँव या पंचायत में ढूंढोगे। या उस किसन के माँ-बाप वह कलुआ शब्द कहाँ से लाएंगे, जिससे वह अपने खोए बेटे को चाँदनी चौक के ढाबे में ढूंढ सकें।
यह दलील कि भारत का इंडिया के मुकाबले उच्चारण मुश्किल है, मात्र बहाना है, जैसे-किसन लाल के मुकाबले कलुआ। यूरोप में बहुत सी भाषाएं ऐसी हैं, जिनके उच्चारण अंग्रेजी में नहीं हैं, पर लोग उन्हें अपनी भाषा की तरह प्रयोग करते हैं। भारत को ज्यादा से ज्यादा लोग क्या ‘बारत’ कहेंगे जो भारत के अधिक करीब है इंडिया बिल्कुल नहीं। सच है यहाँ और देशों से प्रवासियों को फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हारे देश का क्या नाम है। सत्य यह कि यहाँ सब एक-दूसरे के नाम का सम्मान करते हैं, तब हम सबको गौरवमयी नाम भारत क्यों न बताएं। लोगों को इंडिया बता कर क्यों भ्रमित करें।
जिस तरह से कोई हुए लड़के के घरवालों का पता उसके गाँव में किसन नाम से आसानी से पता किया जा सकता है, उसी प्रकार भारत नाम से ऋषि-मुनि, ज्ञान-विज्ञान आध्यात्म आदि का ज्ञान भारत नाम से आसानी से किया जा सकता है, न कि इंडिया से।
अब बात आती है उनकी, जिन्हें भारत के गौरव मान-मर्यादा और इतिहास में बदबू आती है। ऐसे वामपंथी विचारधारा के लोग कहते हैं कि एक तरफ भारत में गरीबी है और यह भारत के नकली हमदर्द इंडिया से भारत नाम बदलने के नाम पर करोड़ों खर्च कराना चाहते हैं। उनके ये विचार खोखले हैं कि गरीबी मिटाने के लिए देश में उनकी प्रिय शराब की दुकानें जिस प्रकार बंद नहीं की जा सकती, लड़ाकू विमान, नौसेना पर खर्चे बंद नहीं किए जा सकते, और यकीन मानिए यदि कर भी दिए जाएँ तो कोई गारंटी नहीं कि गरीबी मिट जाए। उनके अनुसार इन बातों पर ध्यान न देकर सिर्फ गरीबी पर ध्यान दिया जाए और किसी देश ने इस बीच हमला कर दिया तो फिर गरीबी तो नहीं मिटेगी, पर देश का अस्तित्व ही मिट जाएगा। इसलिए सभी देश गरीबी कम करने के प्रयास करते रहते हैं, मिटा कोई नहीं पाता है और विपक्षी गाल बजाने का काम कर अपना धर्म पालन करते हैं।
आज भारत देश का सौभाग्य है कि मुफ्त राशन की गारंटी देश में है। गरीबी है, इसमें दो राय नहीं पर गरीबी कम की जा सकती है, मिटाई नहीं जा सकती। गरीबी- अमीरी में भेद ही अधीन युग में प्रगति का प्रतीक है। घोर वामपंथी देश हो या राम राज्य एक ही सिंहासन पर राजा और रंक नहीं बैठ सकते। अमेरिका में भी लोग सड़क पर सोते हैं, तो चीन के ग
गाँवों में आज भी गरीबी है। यह मात्र नारे हैं कि कम्युनिस्ट देशों में समानता है सच यह है कि यह मात्र नारा है। चिड़ियों के पार्क नहीं होते, बचा अन्न और पानी लोग छत पर किसी के कहने पर नहीं रखते है। यह परिचय किसी विदेशी को मात्र भारत नाम से दिया जा सकता है, इंडिया से समझाना मुश्किल होगा।
जिस प्रकार आत्मा की पहचान शरीर से, शरीर की पहचान चेहरे से और चेहरे की पहचान नाम से होती है, किसी देश की पहचान उसके नाम भाषा, भोजन और वेशभूषा से होती है। देश हो या मानव, किसी की भी पहचान मुखौटे से नहीं होती है और इंडिया नाम एक मुखौटा है।
विदेश में रह रहे जागरूक भारतीय भारत का नाम भारत कहने में अधिक गर्व महसूस करते हैं। हम हमेशा भारत माता की ही जय बोलना पसंद करेंगे, वंदे मातरम कह कर सदा गर्व महसूस करेंगे। हम विदेश में बसे भारतीय इंडिया की जय, इंडिया जिंदाबाद, इंडिया मातरम् में धेले भर भी विश्वास नहीं करते।

(सौजन्य:वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुम्बई)