अभिजीत आनंद ‘काविश’
बक्सर(बिहार)
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बुरे वक़्त के सितम से सहमे मेरे दिन-रात थे,
हम गलत नहीं थे,बुरे मेरे हालात थे…।
सिसकियों संग सिमटी जीने की अभिलाषा,
बेरंग हुई जिंदगी बनकर रह गई तमाशा…
संकटों के मेघ घुमड़-घुमड़ कर बरस रहे थे,
जीवन की मझधार में हम खुशियों की फुहार को तरस रहे थे…।
रिश्तों के फलक पर अपने भी ग़ैरों के हिजाब में थे,
हमदर्द उन्हें मान बैठा ये दिल जो हमदर्दी के नक़ाब में थे…
विपत्तियों के झौंके आत्मविश्वास की लौ बुझा रहे थे,
संघर्षों के समर में वो मेरा वजूद डिगा रहे थे…।
जीवन की तंग गलियों में सहमे मेरे जज्बात थे,
हम गलत नहीं थे,बुरे मेरे हालात थे…॥