राधा गोयल
नई दिल्ली
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जीवन में कुछ करना चाहा, पर चाह कर भी कुछ कर न सके,
कुछ बीमारी ने तड़पाया, कुछ अपनों ने ही जख्म दिए।
जब-जब भी कुछ करना चाहा, अपनों ने रोड़े अटकाए,
किंतु हमारे अटल इरादों को वो रोक नहीं पाए।
जब तक शरीर में ताकत थी, तब समय नहीं मिल पाता था,
गृहस्थी की जमा घटा में ही, दिन यूँ ही बीता जाता था।
अब तन में जान नहीं बाकी, और समय नहीं काटे कटता,
लेकिन मेरा ये पागल मन, नित एक स्वप्न बुनता रहता।
कुछ हसरतें अभी अधूरी हैं, पूरा करने को मचलती हैं,
उठ जा, जुनून है तुझमें, तू कर सकता, मुझसे कहती है।
जितनी पूरी कर सकता है, उतनी तो पूरी कर ले तू,
अपनी इच्छा को मार-मार, जीते जी ऐसे मर न तू।
क्या कभी किसी की सब हसरत, जीवन में पूरी हुईं सदा ?
एक-आध तमन्ना जीवन में, चाहकर भी अधूरी रही सदा।
बस एक तमन्ना बाकी है, उसको यदि पूरा कर पाऊँ।
बेबस बेघर लोगों के लिए, आश्रयघर एक बना पाऊँ।
बाकी इच्छाएँ न हों पूरी, मुझको ग़म न होगा कोई,
क्योंकि सबकी, सब इच्छाएँ, पूरी होती है नहीं कभी।
अनगिनत हसरतें हैं मेरी, लेकिन शरीर में जान नहीं,
पूरी सब न हो पाएँगी, क्या मुझको इसका भान नहीं ?
जिन्दगी बीतने से पहले, वसीयत लिखकर मैं जाऊँगा,
मेरा यह घर ‘आश्रयगृह हो,’ ये हस्ताक्षर करवाऊँगा।
मेरे खाते में जो पैसा, सेवा में खर्च करना होगा,
हसरत यदि रही अधूरी यह, उसको पूरा करना होगा॥