कुल पृष्ठ दर्शन :

‘हिंदी में शपथ’ भाषाई चेतना का निर्णायक उद्घोष

ललित गर्ग

दिल्ली
***********************************

भारत के ५३वें प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति सूर्यकांत द्वारा हिंदी में शपथ लेना भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में केवल एक औपचारिक घटना नहीं, बल्कि सांस्कृतिक, राष्ट्रीय और मनोवैज्ञानिक चेतना का नया शुभारंभ है। यह वह क्षण है जिसने भाषा को लेकर दशकों से चले आ रहे संकीर्ण विवादों, राजनीतिक विरोधाभासों और कृत्रिम विभाजनों पर एक गहरी चोट की है। यह निर्णय राष्ट्रीय मानस में इस भावना को पुनः स्थापित करता है कि भाषा का प्रश्न केवल संचार का साधन नहीं, बल्कि राष्ट्र की आत्मा का प्रतीक है। यह निर्णय उस विरोधाभास पर भी प्रकाश डालता है जिसमें विश्व की तीसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा हिंदी को अपने ही देश में सबसे अधिक उपेक्षा, संकोच और राजनीतिक विरोध का सामना करना पड़ता रहा है।
भारत में भाषा सदैव राजनीति का एक सुविधाजनक औज़ार रही है। कुछ दशकों से चले आ रहे भाषाई आंदोलन और हिंदी-विरोधी राजनीति ने देश की एकता को अक्सर चुनौती दी है। क्षेत्रवाद की आड़ में कुछ राजनीतिक दलों ने हिंदी को एक क्षेत्र विशेष की भाषा बताकर उसका महत्व कम करने का प्रयास किया, लेकिन यह तर्क न तो व्यावहारिक था और न ही ऐतिहासिक। हिंदी किसी क्षेत्र की भाषा नहीं, बल्कि करोड़ों भारतीयों के हृदय की भाषा है, जनमानस की अभिव्यक्ति है, भारत की आत्मा की धड़कन है। न्यायमूर्ति द्वारा हिंदी में शपथ लेना पुनः उद्घाटित करता है कि भारतीय लोकतंत्र की संवैधानिक संस्थाएँ केवल कानून और प्रशासन की रक्षा ही नहीं करतीं, बल्कि भारतीयता और राष्ट्रीय अस्मिता को भी नई दिशा देती हैं। यह कदम यह संदेश देता है कि नई पीढ़ी की संस्थाएँ अब आत्मविश्वास के साथ भारत की भाषा में अपने कर्तव्यों की शुरुआत कर रही हैं।
हिंदी को लेकर जो विरोधाभास पैदा किया जाता रहा है, वह वास्तव में एक कृत्रिम एवं आग्रह-दुराग्रहपूर्ण द्वंद्व है। आज के वैश्विक दौर में भाषा का महत्व उसकी लोक स्वीकृति और उपयोगिता से तय होता है। हिंदी वैश्विक भाषाओं की सूची में तेजी से ऊपर बढ़ रही है। करीब ११३ करोड़ के साथ अंग्रेजी पहले स्थान पर है, १११ करोड़ के साथ चीनी दूसरे स्थान पर है, इसके बाद हिन्दी का स्थान आता है। करीब ६१.५ करोड़ विश्व में, हिन्दी को बोलने वाल लोगों की संख्या के आधार पर तीसरी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा का स्थान प्राप्त है। हिंदी का प्रभाव विश्व में बढ़ रहा है और यह सोशल मीडिया व संचार माध्यमों में भी लगातार उपयोग हो रही है। दुनिया भर के १७५ से अधिक विश्वविद्यालयों में हिंदी भाषा पढ़ाई जा रही है एवं देवनागरी लिपि को दुनिया की सबसे वैज्ञानिक लिपियों में से एक माना जाता है। भारत सरकार की पहल के बाद से संयुक्त राष्ट्र ने भी साप्ताहिक हिंदी समाचार बुलेटिन शुरू किया है। अमेरिका, कनाडा, खाड़ी देशों और यूरोप में हिंदी सीखने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है। यह वह समय है, जब हिंदी वैश्विक मंच पर उभर रही है, लेकिन अपने ही देश में उसे राजनीति और संकीर्णताओं का शिकार होना पड़ रहा है। यही वह असंगति है जिसे न्यायमूर्ति सूर्यकांत की शपथ ने बड़े सौम्य, किंतु तीव्र संदेश के साथ उजागर किया है कि जब दुनिया हिंदी को सम्मान दे रही है तो भारत में उसकी उपेक्षा किसी भी रूप में स्वीकार्य नहीं हो सकती।
राष्ट्रीय प्रतीक केवल वस्तुएँ नहीं होते, वे राष्ट्र की चेतना के वाहक होते हैं। राष्ट्रध्वज केवल कपड़े का टुकड़ा नहीं, करोड़ों लोगों के स्वाभिमान और बलिदान का प्रतीक है। उसी प्रकार राष्ट्र की भाषा-चाहे उसे हम राजभाषा कहें या राष्ट्रभाषा भारतीय पहचान और राष्ट्रीय एकता का अदृश्य धागा है। नए भारत का निर्माण तभी संभव है, जब हम इन प्रतीकों का सम्मान हृदय में करें। हिंदी को लेकर जो संकोच, झिझक और कृत्रिम विरोध दशकों से बना हुआ था, वह राष्ट्रीय आत्मविश्वास के लिए बाधक था। हिंदी में शपथ लेकर न्यायमूर्ति ने इस मानसिक दरार को पाटने में महत्वपूर्ण कदम उठाया है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने कार्यकाल में हिंदी को वैश्विक स्तर पर प्रतिष्ठित करने का साहसिक कार्य किया है। अनेक अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उन्होंने हिंदी में संबोधन देकर दुनिया को यह संदेश दिया कि भारत अपनी भाषा को लेकर हिचकता नहीं, बल्कि गर्व करता है। इससे पहले अटल बिहारी वाजपेयी ने भी संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में भाषण देकर ऐतिहासिक परंपरा की शुरुआत की थी। उनकी वाणी में भारत की आत्मा की ध्वनि थी। जब राष्ट्र का प्रधानमंत्री अपनी भाषा को वैश्विक मंचों पर प्रतिष्ठा दिलाता है और जब राष्ट्र का प्रधान न्यायाधीश उसी भाषा में शपथ लेता है, तब यह संकेत मिलता है कि नए भारत की भाषा नीति संकोच नहीं, बल्कि स्वाभाविक भारतीयता की पुनर्स्थापना है।
न्यायमूर्ति की हिंदी में शपथ वास्तव में एक वैचारिक उद्घोष है। यह घोषणा है कि भाषा को लेकर चलने वाला हमारा पुराना आत्मद्वंद्व समाप्त होना चाहिए। राष्ट्रभाषा का सम्मान किसी क्षेत्र या समुदाय पर थोपा हुआ बोझ नहीं, बल्कि वह प्राकृतिक बंधन है जो विविधता को सामूहिकता में बदलता है। यह वह बंधन है जो भारत को भारत बनाता है। यह वह अदृश्य शक्ति है, जो उत्तर से दक्षिण, पश्चिम से पूर्व और ग्रामीण से महानगरीय भारत को एक सांस्कृतिक सूत्र में पिरोती है, व्यापार एवं विकास को गति देता है। हिंदी किसी पर थोपी जाने वाली भाषा नहीं, वह तो स्वयंस्फूर्त जनमानस की भाषा बन चुकी है। उसका विरोध अब एक राजनीतिक नाटक भर रह गया है, जिसका वास्तविकता से कोई सरोकार नहीं। नए भारत ने अपने संकोचों को त्यागना शुरू कर दिया है।

न्यायमूर्ति की हिंदी में शपथ नए भारत की सांस्कृतिक स्वाधीनता का प्रतीक बन गई है। यह वह क्षण है जिसने भाषा के प्रश्न को संवैधानिक गरिमा और राष्ट्रीय चेतना के सर्वाेच्च स्तर पर स्थापित कर दिया है। इस कदम ने यह सिद्ध कर दिया है कि हिंदी केवल भाषा नहीं, बल्कि राष्ट्रीय आत्मा का प्रकाश है, एक ऐसा प्रकाश जो आत्मविश्वास, सांस्कृतिक प्रतिष्ठा और राष्ट्रीय एकता की नई राहें रोशन कर रहा है।