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हिन्दी के ‘भैय्या साहब’ पं. श्रीनारायण चतुर्वेदी

प्रो. अमरनाथ
कलकत्ता(पश्चिम बंगाल)
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“मेरे उत्तराधिकारी कौन हैं ? मेरे वंशज मेरे कानूनी उत्तराधिकारी मात्र हैं। वे मेरी भौतिक संपत्ति के(जो नगण्य है) उत्तराधिकारी हैं,किन्तु मेरे वास्तविक उत्तराधिकारी वे भावी युवक हैं जिनमें हिन्दी-प्रेम ही नहीं,हिन्दी का दर्द भी हो,वे नहीं जो मात्र साहित्य-रचना कर या संपादन या हिन्दी-अध्यापन कर अपना पेट पालते हों और इसी को हिन्दी-सेवा समझते हों। मेरे उत्तराधिकारी वे होंगे जो हिन्दी के हितों,हिन्दी-भाषियों और हिन्दी की सेवा करने वालों के हितों के लिए निस्पृह भाव से कार्य करें और हिन्दी-भक्त साहित्यकारों की स्मृति को जीवित रखने का प्रयास करें और हिन्दी के लिए त्याग और कठिन परीक्षा देने को तैयार हों और जो हिन्दी के मान की प्राण-पण से रक्षा करें तथा हिन्दी का आलमबरदार होना गौरव की बात समझें।” उक्त कथन हिन्दी के अनन्य सेवक पं. श्रीनारायण चतुर्वेदी (२८ दिसंबर १८९५-१८ अगस्त १९९०) का हैं जिसे उन्होंने अपनी संस्मरणों की पुस्तक ‘निजी वार्ता’ के पहले ही पृष्ठ पर लिखा है।
‘भैय्या जी’ के नाम से मशहूर पं. चतुर्वेदी स्वयं को जिनका उत्तराधिकारी मानते हैं, उनकी विरासत को भी उन्होंने पूरी निष्ठा और ईमानदारी से आगे बढ़ाया। वे कहते हैं, “मुझमें जो भी हिन्दी की निष्ठा है वह मैंने अपने पूज्य पिता जी,महामना मालवीय जी,पं. बालकृष्ण भट्ट और राजर्षि टंडन से पाई है। इस अर्थ में उनका वारिस हूँ-चाहे कितना भी अयोग्य वारिस क्यों न होऊँ,किन्तु मुझे उनका वारिस होने का गर्व है। मुझे जीवन की संध्या में इस बात का संतोष है कि मैंने अपनी अल्पबुद्धि,क्षीण सामर्थ्य और उपलब्ध अपर्याप्त साधनों से उनके दिखाए मार्ग पर हिन्दी की सेवा में निस्पृह भाव से पूरा उपयोग करने का प्रयत्न किया।”
इटावा (उ.प्र.) में जन्मे,इलाहाबाद विवि से इतिहास में एम.ए. और फिर लंदन विवि से उच्च शिक्षा प्राप्त करके भारत लौटने पर उत्तर प्रदेश सरकार के शिक्षा विभाग में उच्च अधिकारी रहे पं. चतुर्वेदी आकाशवाणी के उपमहानिदेशक (भाषा) भी रहे। वे ‘सरस्वती’ पत्रिका के अंतिम संपादक थे।
उन्हें ‘हिन्दी का भीष्म पितामह’ कहा जाता था। जिस तरह भीष्म हस्तिनापुर से बँधे थे उसी तरह चतुर्वेदी जी हिन्दी से। हिन्दी के प्रति उनकी यही निष्ठा उन्हें उर्दू-विरोध तक ले गई। यद्यपि उन्हें भली-भाँति पता था कि गाँधी जी ने इसी हिन्दी-उर्दू विवाद का स्थाई समाधान ढूँढने के लिए भारत की राष्ट्रभाषा के रूप में ‘हिन्दुस्तानी’ का प्रस्ताव किया था। गाँधी जी के प्रयास से ही काँग्रेस के कानपुर अधिवेशन में कांग्रेस की सारी कार्यवाहियाँ ‘हिन्दुस्तानी’ में किए जाने का प्रस्ताव पास हुआ था। वे जिसे हिन्दी कहते थे उसके स्वरूप की व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा है, “ऐसी दलील दी जाती है कि हिन्दी और उर्दू दो अलग-अलग भाषाएं हैं। यह दलील सही नहीं है। उत्तर भारत में मुसलमान और हिन्दू एक ही भाषा बोलते हैं। भेद पढ़े-लिखे लोगों ने डाला है…मैं उत्तर में रहा हूँ,हिन्दू- मुसलमानों के साथ खूब मिला-जुला हूँ और मेरा हिन्दी भाषा का ज्ञान बहुत कम होने पर भी मुझे उन लोगों के साथ व्यवहार रखने में जरा भी कठिनाई नहीं हुई है। जिस भाषा को उत्तरी भारत में आम लोग बोलते हैं,उसे चाहे उर्दू कहें चाहे हिन्दी,दोनों एक ही भाषा की सूचक है। यदि उसे फारसी लिपि में लिखें तो वह उर्दू भाषा के नाम से पहचानी जाएगी और नागरी में लिखें तो वह हिन्दी कहलाएगी।”
राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन से इसी मुद्दे को लेकर उनका विवाद चला और लम्बे पत्राचार के बाद हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष पद से गाँधी जी को त्यागपत्र देना पड़ा। इन सारे विवादों के पीछे की राजनीति का विश्लेषण करते हुए काका साहब कालेलकर ने लिखा है, “हिन्दी का प्रचार करते हम इतना देख सके कि,हिन्दी साहित्य सम्मेलन को उर्दू से लड़कर हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाना है और गाँधी जी को तो उर्दू से जरूरी समझौता करके हिन्दू-मुस्लिमों की सम्मिलित शक्ति के द्वारा अंग्रेजी को हटाकर उस स्थान पर हिन्दी को बिठाना था। इन दो दृष्टियों के बीच जो खींचातानी चली,वही है गाँधीयुग के राष्ट्रभाषा प्रचार के इतिहास का सार।”
खेद है कि संविधान सभा में होने वाली बहस के पहले ही गाँधी जी की हत्या हो गई। देश का विभाजन भी हो गया था। इन परिस्थितियों का गंभीर प्रभाव सभा की बहसों और होने वाले निर्णयों पर पड़ा। हिन्दुस्तानी और हिन्दी को लेकर सदन २ हिस्सों मे बँट गया। गाँधी जी के निष्ठावान अनुयायी जवाहरलाल नेहरू,मौलाना अबुल कलाम आजाद सहित दक्षिण के डॉ. पी. सुब्बारायन,टी.टी. कृष्णामाचारी,टी.ए. रामलिंगम चेट्टियार,एन.जी. रंगा,दुर्गाबाई देशमुख आदि ने हिन्दुस्तानी का समर्थन किया तो दूसरी ओर राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन,सेठ गोबिन्द दास,रविशंकर शुक्ल,के.एम. मुंशी आदि ने हिन्दी का। बहुमत हिन्दी के पक्ष में था और संविधान सभा ने हिन्दी को संघ की राजभाषा तय कर दिया।
वैसे भी ‘हिन्दुस्तानी’ कहने से जिस तरह व्यापक राष्ट्रीयता और सामाजिक समरसता का बोध होता है,उस तरह हिन्दी कहने से नहीं। इस शब्द में न तो क्षेत्रीयता की गंध है और न जाति-धर्म की संकीर्णता की। यदि हिन्दुस्तानी को राजभाषा के रूप में स्वीकृति मिल गई होती तो उर्दू का झगड़ा सदा के लिए खत्म हो गया होता। निश्चित रूप से हिन्दुस्तानी की जगह हिन्दी को राजभाषा के रूप में स्वीकार किया जाना एक बड़ी ऐतिहासिक भूल थी और इतिहास की इस भूल का दुष्परिणाम आज भी हिन्दी-उर्दू विवाद के रूप में हम झेल रहे हैं। आज राजनीतिज्ञों ने अघोषित रूप से तुष्टीकरण की राजनीति के लिए उर्दू को इस्लाम के साथ जोड़ दिया है।
उत्तर प्रदेश सरकार ने जब उर्दू को प्रदेश की दूसरी राजभाषा घोषित किया तो अपने को राजर्षि टंडन का सच्चा वारिस घोषित करने वाले पं. चतुर्वेदी ने तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी को विरोध में पत्र लिखा और अपना ‘भारत भारती सम्मान’ वापस कर दिया। पत्र में उन्होंने लिखा,-
“मैं निम्न मध्यवर्ग का हूँ। मैंने जीवन में एक लाख रूपए कभी नहीं देखे,लेकिन आपकी सरकार ने उर्दू को द्वितीय राजभाषा पौने १० प्रतिशत लोगों के तथाकथित हित में बनाकर इस राज्य की राजभाषा प्रेमी ९० प्रतिशत जनता का अहित और अपमान किया है। इसे देखते हुए मेरे लिए १ लाख रूपए का भारत भारती पुरस्कार लेना अनुचित है।”
प्रदेश की हिन्दी प्रेमी जनता को जब श्री चतुर्वेदी के उक्त फैसले का पता चला तो हिन्दी के उनके प्रिय साहित्यकारों और हिन्दी-प्रेमियों ने १ लाख ११ हजार रूपए एकत्र करके लोकसभा में विपक्ष के तत्कालीन नेता अटलबिहारी वाजपेयी के हाथों उन्हें ‘जनता भारती पुरस्कार’ दिलवाकर उसकी भरपाई की।
लंबे समय तक उनके संपर्क में रहने वाले राजेश अवस्थी ने लिखा है, “उर्दू को द्वितीय राजभाषा बनाए जाने की कसक उन्हें अन्तिम समय तक सालती रही। लकवे की बीमारी से पीड़ित होने के बाद जब कोई उनसे मिलने जाता तो अर्धचेतना में होने के बावजूद उनकी जुबान पर सिर्फ यही शब्द होते थे, “इनसे पूछो कि राज्य सरकार द्वारा उर्दू को दूसरी राजभाषा बना दिया गया। आखिर ये क्या कर रहे हैं ? या “उर्दू को द्वितीय राजभाषा बनाए जाने के विरोध में कितने लोग इनके साथ हैं ?” बार-बार यह दर्द उनके चेहरे पर उभर आता था कि यदि वे स्वस्थ होते तो एक बार फिर सरकार द्वारा उर्दू को दूसरी राजभाषा का दर्जा दिए जाने के विरोध में मैदान में उतर पड़ते।” आल इंडिया रेडियो में रहते हुए चतुर्वेदी जी ने लगातार प्रयास करके रेडियो की भाषा से अरबी-फारसी के शब्दों के अबाध इस्तेमाल पर रोक लगाई और उसकी संस्कृतनिष्ठता में इजाफा किया।
हिन्दी तथा हिन्दी के साहित्यकारों के सम्मान के प्रश्न पर चतुर्वेदी जी ने कभी कोई समझौता नहीं किया। सन १९८५ में उप्र हिन्दी संस्थान द्वारा सुप्रसिद्ध साहित्यकार जैनेंद्र को भारत भारती पुरस्कार देने के लिए लखनऊ के रवीन्द्रालय प्रेक्षागृह में सम्मान समारोह आयोजित किया गया था। पं. चतुर्वेदी के लिए दूसरी पंक्ति में सीट रखी गई थी। चतुर्वेदी जी को जब निमंत्रण पत्र द्वारा इसकी जानकारी मिली तो उन्होंने संस्थान के तत्कालीन उपाध्यक्ष डॉ. शिवमंगल सिंह सुमन को लिखा कि, ‘निमंत्रण पत्र से मुझे जानकारी मिली है कि इस समारोह में मेरे लिए दूसरी पंक्ति में सीट सुरक्षित है,जबकि मुझे पता चला है कि पहली पंक्ति मंत्रियों एवं राज्याधिकारियों के लिए सुरक्षित की गई है। इससे पूर्व भी संस्थान के एक समारोह में मुझे,शिवानी जी तथा नागर जी आदि को द्वितीय पंक्ति में बैठने के लिए स्थान दिया गया था। चूँकि,उप्र हिन्दी संस्थान एक साहित्यिक संस्था है, इसलिए उसके समारोह में सरकारी अधिकारियों और राजनेताओं को प्रथम पंक्ति में स्थान देना और साहित्यकारों को दूसरी पंक्ति में स्थान देना मैं साहित्यकारों का अपमान समझता हूँ। इसलिए विरोध स्वरूप मैं इस समारोह में शामिल नहीं होऊँगा। कृपया मेरे लिए निश्चित स्थान किसी दूसरे को दे दें।’
इस पत्र की सूचना जब प्रदेश सरकार के कैबिनेट मंत्री प्रो. वासुदेव सिंह को मिली तो उन्होंने संस्थान के अधिकारियों को कड़ी फटकार लगाई। उसके बाद प्रदेश के कुछ मंत्री तथा आयोजकों ने चतुर्वेदी जी को मनाने की बहुत कोशिश की और बताया कि उन्हें आगे की पंक्ति में बैठाया जाएगा,किन्तु चतुर्वेदी जी जिद पर अड़े रहे। उनका कहना था कि उनका विरोध स्वयं अगली पंक्ति में बैठने के लिए नहीं था, बल्कि वे इसे सभी साहित्यकारों का अपमान समझते हैं कि,हिन्दी संस्थान जैसी साहित्यिक संस्था द्वारा साहित्यकारों को राज्याधिकारियों और राजनेताओं की अपेक्षा दूसरी या तीसरी पंक्ति में स्थान दिया जाए।’
चतुर्वेदी जी द्वारा उक्त समारोह के बहिष्कार की सूचना मिलने पर लखनऊ के अनेक प्रबुद्ध साहित्यकार और हिन्दी समाचार पत्रों के सम्पादक भी इस समारोह में नहीं शामिल हुए।
चतुर्वेदी जी हिन्दी और हिन्दीवालों का इतना सम्मान करते थे कि अपने पुरखों का श्राद्ध करने के लिए गया जाते वक्त वे हिन्दी के तमाम दिवंगत साहित्यकारों की सूची अपने साथ ले गए थे और उनका भी श्राद्ध कर आये थे।
पं.चतुर्वेदी जहाँ भी रहते थे,वहाँ कवि सम्मेलनों की धूम रहती थीं। हिन्दी के प्रति इनकी निष्ठा से प्रभावित होकर ही राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन का सुझाव मान कर सरदार पटेल के सूचना मंत्रित्व काल में चतुर्वेदी जी को आल इंडिया रेडियो में उप महानिदेशक के रूप में संस्तुत किया गया था।
चतुर्वेदी जी की ख्याति एक कवि,पत्रकार,भाषा-वैज्ञानिक तथा लेखक के रूप में है। वे ‘श्रीवर’ नाम से कविताएं लिखते थे। उनके दो काव्य-संग्रह प्रकाशित हैं- ‘रत्नदीप’ तथा ‘जीवन-कण।’ लगभग २० वर्ष तक उन्होंने ‘सरस्वती’ का संपादन किया। संपादन करते हुए राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर के विद्वानों के प्रति श्रद्धांजलि स्वरूप लिखे गए संपादकीय लेखों का संग्रह ‘पावन स्मरण’ के नाम से प्रकाशित है। उनकी एक पुस्तक ‘विनोद शर्मा अभिनंदन ग्रंथ’ है। यह हास्य व्यंग्य का महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। ‘आधुनिक हिन्दी का आदिकाल’ तथा ‘साहित्यिक चुटकुले’ भी उनके महत्वपूर्ण ग्रंथ हैं।
१९६७ में चतुर्वेदी जी ने अपनी आत्मकथा लिखनी आरंभ की थी किन्तु वह अधूरी रह गई। उन्हें इस तरह का लेखन निरर्थक लगने लगा। वे आत्मकथा लेखन को आत्मश्लाघा और आत्म-विज्ञापन मानते थे। हम हिन्दी के हित में पं. चतुर्वेदी के अप्रतिम योगदान का स्मरण और उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं।

(सौजन्य:वैश्विक हिंदी सम्मेलन,मुम्बई)

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