हेमराज ठाकुर
मंडी (हिमाचल प्रदेश)
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आज हिमाचल रो रहा है, चहुं ओर देख कर चीख पुकार
टूटे पर्वत, सड़कें टूटीं, बहा गई नदियाँ कई लोगों के घर-बार।
बेघर हुए, कई अनाथ हुए, कईयों का बह गया सब परिवार,
बेजुबां पशु भी बह गए, पेड़-पौधे तो बह गए लाख-हजार।
वह बह गया! वह ढह गया! रुको! भागो! बचो!-है यही गुंजार,
बस काया का कपड़ा ही शेष रहा, लुट गया बाकी का संसार।
लोगों की मदद लोग ही कर रहे, थक गई है हिमाचल सरकार,
पक्ष-विपक्ष में घमासान मचा है, कौन करेगा इसका उपचार ?
सत्ता हो गई निरुत्तर-सी, कुदरत भी न कुछ सुनने को तैयार,
मानव मस्ती में चूर है, सुधारा किसने यहाँ अपना व्यवहार ?
पेड़ काटना, अवैध खनन और गंदगी फैलाना देवों के दरबार,
मान बैठा है सुविधा-जीवी, मानव अपना मौलिक अधिकार।
देव-स्थल हो गए पिकनिक के अड्डे, होने लगे वहाँ व्यभिचार,
छोटों को रही न कद्र बड़ों की, तनिक भी रहा न शिष्टाचार।
तर्कवादी मानव न मानेगा, कुदरत तो चलाएगी अपने हथियार,
आत्म-शुद्धि कुदरत को भी करनी है, तू करता रह हाहा-कार।
पढ़ाई-लिखाई से बुद्धि सठियाई, स्वार्थ बढ़ा और भ्रष्टाचार,
कायदे-कानून सब कागज में रह गए, बाकी मची है मारामार।
संभल ले मूर्ख मानुष अभी भी! बहुत बुरी कुदरत की मार।
आ गई अपनी पर तो छोड़ेगी न फिर, तुझे न तेरा कारोबार॥