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विशुद्ध राजनीति है अंग्रेजी को बढ़ाने की

डॉ.एम.एल.गुप्ता ‘आदित्य’ 
मुम्बई (महाराष्ट्र)

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शिक्षा नीति २०१९ के प्रारुप पर भाषा को लेकर बवाल…….
प्रश्न यह है कि अंग्रेजी समर्थक एक शक्तिशाली वर्ग जिसने संविधान सभा के निर्णय के पश्चात भी संविधान के अनुच्छेद ३४३ में इस प्रकार का प्रावधान करवाया कि संविधान लागू होने के १५ साल के बाद भी अंग्रेजी के प्रयोग के प्रावधान किए जा सकें। जिसने राजभाषा आयोग की रिपोर्ट के प्रतिकूल संसदीय समिति के माध्यम से अंग्रेजी को हटाने के उपायों के बजाए ऐसी सिफारिशें की कि अंग्रेजी को क्यों और कैसे बनाए रखा जाए। जिसने १९५९ में संसद में संविधान के विपरीत यह कहा कि जब तक अहिंदी भाषी राज्य चाहेंगे,देश में अंग्रेजी का प्रयोग जारी रहेगा। जिसने संविधान की भावना के प्रतिकूल राजभाषा अधिनियम १९६३ में यह प्रावधान करवाया कि संसद और संघ में सभी प्रयोजनों के लिए २६ जनवरी १९६५ के बाद भी अंग्रेजी का प्रयोग जारी रहेगा। जिसने १९६७ में ऐसे प्रावधान किए कि,संसद अधिकार भी राज्यों को सौंप दिए,ताकि संसद राजभाषा अधिनियम के प्रावधानों में परिवर्तन कर के कभी अंग्रेजी को हटा न सके।
स्वतंत्रता के काफी बाद तक भी जहां हमारे देश में लगभग ९९ फीसदी लोग मातृभाषा में पढ़ते थे,वहां इस वर्ग के चलते छोटे-छोटे गांवों तक अंग्रेजी माध्यम पहुंच गया है। क्या ऐसे लोग कभी अंग्रेजी को अनिवार्य से ऐच्छिक स्तर पर ले जाने देंगे। क्या शिक्षा व रोजगार और शासन-प्रशासन से अंग्रेजी के वर्चस्व को हटने देंगे ? मैं तो यह पाता हूँ कि असल मुद्दा हिंदी विरोध नहीं, बल्कि अंग्रेजी के वर्चस्व और एकाधिकार को बनाए रखने के लिए एक वर्ग विशेष का षडयंत्र है।
ये कथित हिंदी विरोधी नेता आपको मातृभाषा माध्यम से शिक्षा-रोजगार आदि की बात करते नहीं दिखते। इऩ्होंने तो कभी अपने राज्य के उच्च न्यायालय में अपनी भाषा में न्याय की माँग तक नहीं उठाई। यह विशुद्ध राजनीति है,अंग्रेजी को बढ़ाने की और भाषा के नाम पर लोगों को लड़ा कर अपनी राजनीति चमकाने की।