उमेशचन्द यादव
बलिया (उत्तरप्रदेश)
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“इसे ही ‘समय का फेर’ कहते हैं। आज मैं बेसहारा हूँ,लाचार हूँ,पर भगवन भक्ति से मुख नहीं मोड़ा है। यही कारण है कि मैं अपने वर्तमान को देख पा रहा हूँ। यहाँ बैठे-बैठे अपने साथ-साथ अतिथि भगवनों का भी पेट भर जाता है। समय-समय पर भक्ति-भजन और भंडारे का आयोजन भी हो जाता है। संत-महात्माओं की सेवा कर खुद को धन्य करने का शुभ अवसर भी मिल जाता है। इस प्रकार मेरा जीवन बीत रहा है….” अन्य बहुत सारी बातें बाबा ने मुझे बताई।
बाबा के लंगड़े होने की वजह जानकर मुझे बहुत दु:ख हुआ और कुछ आश्चर्य भी हुआ। जिज्ञासा बढ़ती जा रही थी कि उनको बचपन की याद में डूबो दूँ,लेकिन अचानक उनकी आँखें भर आईं और हम थोड़ी देर के लिए मूर्तिवत बने रहे। तभी उन्होंने कुटिया से मुँह फेरे काका को जाते देखा और मुझसे कहा कि-“देख रहे हो न उन्हें।” मैंने कहा-“जी,क्या बात है ? उन्हें तो मैं रोज देखता हूँ। बातें भी करता हूँ।” बाबा ने धोती के कोने से अपने आँसू पोंछते हुए अपनी पुरानी यादें ताजा की।
वे बोले-“एक समय था जब काका मुझसे मिले बगैर इस रास्ते से आगे नहीं बढ़ते थे। खेत जाते और लौटते समय वे कुटिया पर बैठते थे। कथा-कहानी सुनते और सुनाते थे। भंडारे का समय होता तो हम एकसाथ भोजन भी करते थे। वे हर समय मेरी कुशल- क्षेम पूछा करते थे,लेकिन जब से मैं बीमार पड़ा और मेरा पैर खराब हो गया तब से इन्होंने कुटिया की ओर आना-जाना बिल्कुल बंद कर दिया। बार-बार बुलावा भेजने पर भी नहीं आते,कोई न कोई बहाना बना देते हैं। इन्हीं की तरह बहुत से लोगों के व्यवहार को बदलते हुए मैंने देखा है। जब मैं स्वस्थ था तो बड़े-बड़े यज्ञ भी आसानी से हो जाते थे। एक को इशारा करते ही अनेक लोग सेवा के लिए हाज़िर हो जाते थे,लेकिन आज समय खराब हो गया है तो मजदूरी देने पर भी लोग आने से कतराते हैं।”
“एक समय था जब मेरी कुटिया में लोगों को आश्रय मिल जाता था और मदद करके मैं खुद को धन्य समझता था,पर आज यह बरगद का पेड़ ही मेरा सहारा है। मेरे दिन-रात,गर्मी और बरसात इसी की छाया में बीत रहे हैं। कभी-कभी तो आँधी-तूफान में इसकी डालियाँ भी मेरे उपर गिर पड़ती हैं,लेकिन भगवान की कृपा से हल्की- फुल्की चोट खाकर बच जाता हूँ। गाँव से दूर इस अकेले और सुनसान क्षेत्र में मेरी खबर लेने भी कोई नहीं आता। अगर कोई दूर से जाते हुए दिख जाता है तो आवाज लगाकर बुलाता हूँ। कईयों को बुलाने पर कोई एक आ जाता है और मुझे उस मुसीबत से बाहर निकालता है। उस सेवक को मैं भगवान का दूत मानकर सम्मान के साथ कुछ प्रसाद खिलाने का प्रयास अवश्य करता हूँ।”
“बरगद के नीचे बैठ कर आज मैं ठीक उसी तरह अपनी मृत्यु और प्रियजनों का इंतजार करता हूँ,जिस प्रकार माता सीता,रावण की नगरी लंका में अशोक वाटिका में बैठी भगवान श्री राम का इंतजार कर रहीं थी। जीवन की इस विकट अवस्था को मैं परीक्षा का समय समझकर झेल रहा हूँ। पता नहीं कि भगवान मेरी खबर कब लेंगे ? कब तक मैं कष्टमय जीवन व्यतीत करुँगा,लेकिन हाँ,एक बात तो जरूर है कि मेरी आस्था में कोई परिवर्तन नहीं है। जीवन से आज भी मैं उतना ही खुश हूँ जितना कि पहले था,क्योंकि सुख-दु:ख का मेला ही जीवन है। इस कोल्हुंवा गाँव में मुझे रहते हुए अब लगभग पचास वर्ष हो गए। अब यहाँ से कहीं और जाने की इच्छा भी नहीं होती। कुछ दिनों के लिए मैं अयोध्या जरुर चला जाता हूँ। वहाँ हनुमानगढ़ी गुलचमन बाग में अपने गुरूजी के आश्रम में रहकर फिर लौट आता हूँ। पहले तो मैं वहाँ महीनों रहा करता था। गुरुजी की डाँट और प्यार दोनों पाकर मन गद-गद हो जाता था। अब वे नहीं रहे तो बस मेहमान की तरह आना-जाना होता हैl गुरुजी थे तो मैं भी आश्रम को घर ही समझता था। अब तो वहाँ गुरुभाई और चेले हैं।”
बाबा की ये सारी बातें सुनकर मेरा मन अघा नहीं रहा था। मन कर रहा था कि बस सुनता जाऊँ। इतने में बाबा ने कहा-“जरा कमंडल लाओ!” मैं उठा और वहीं बगल में एक झोपड़ी थी,जिसमें कमंडल टंगा हुआ था,उतार कर बाबा को दे दिया। बाबा मुस्कराते हुए बोले-“बहुत देर हो गई बात करते-करते,ये लो प्रसाद खा लो।” मैंने भी बाबा की बात को स्वीकार किया और प्रसाद ग्रहण किया। बाबा से बात करके बहुत अच्छा लगा। हमें जरूरतमंद लोगों की मदद जरूर करते रहना चाहिए। परोपकार: परमो धर्म:।
परिचय-उमेशचन्द यादव की जन्मतिथि २ अगस्त १९८५ और जन्म स्थान चकरा कोल्हुवाँ(वीरपुरा)जिला बलिया है। उत्तर प्रदेश राज्य के निवासी श्री यादव की शैक्षिक योग्यता एम.ए. एवं बी.एड. है। आपका कार्यक्षेत्र-शिक्षण है। आप कविता,लेख एवं कहानी लेखन करते हैं। लेखन का उद्देश्य-सामाजिक जागरूकता फैलाना,हिंदी भाषा का विकास और प्रचार-प्रसार करना है।
