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बहुत जरूरत है दायित्वों से बंधी राखी के सम्मान की

ललित गर्ग
दिल्ली

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रक्षाबंधन पर्व विशेष………..

रक्षाबन्धन हिन्दू धर्म का प्रमुख सांस्कृतिक, सामाजिक और पारिवारिक पर्व है। यह आपसी संबंधों की एकबद्धता,प्रेम एवं एकसूत्रता का सांस्कृतिक उपक्रम है। प्यार के धागों का यह एक ऐसा पर्व है,जो घर-घर मानवीय रिश्तों में नवीन ऊर्जा का संचार करता है। यह जीवन की प्रगति और मैत्री की ओर ले जाने वाला एकता एवं स्नेह का एक बड़ा पवित्र त्यौहार है। रक्षा का अर्थ है बचाव और मध्यकालीन भारत में जहां कुछ स्थानों पर महिलाएं असुरक्षित महसूस करती थी,वे पुरुषों को अपना भाई मानते हुए उनकी कलाई पर राखी बांधती थी। इस प्रकार राखी भाई और बहन के बीच प्यार के बंधन को मजबूत बनाती है तथा इस भावनात्मक बंधन को पुनर्जीवित करती है। राखी के धागों से भाई-बहन ही नहीं,बल्कि संपूर्ण मानवीय संवेदनाओं का गहरा नाता रहा है। भाई और बहन के रिश्ते को यह फौलाद-सी मजबूती देने वाला है। आदर्शों की ऊंची मीनार है, रीति-रिवाजों का गौरवपूर्ण सम्मान है।
रक्षाबन्धन एक हिन्दू त्यौहार है जो प्रतिवर्ष श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। रक्षाबन्धन में राखी या रक्षासूत्र का सबसे अधिक महत्त्व है। राखी कच्चे सूत जैसे सस्ती वस्तु से लेकर रंगीन कलावे,रेशमी धागे तथा सोने या चाँदी जैसी महंगी वस्तु तक की हो सकती है। सगे भाई-बहन के अतिरिक्त अनेक भावनात्मक रिश्ते भी इस पर्व से बँधे होते हैं जो धर्म,जाति और देश की सीमाओं से परे हैं। सीमाओं पर जवानों को राखी बांधने का भी प्रचलन है,इस तरह रक्षाबन्धन आत्मीयता और स्नेह के बन्धन से रिश्तों को मजबूती प्रदान करने का पर्व है। यही कारण है कि इस पर्व के साथ न केवल बहन भाई के लिए अपितु अन्य रिश्तों एवं सम्बन्धों में प्रगाढ़ता,आत्मीयता एवं सौहार्द का सन्देश है। इस दिन ब्राह्मण अपने पवित्र जनेऊ बदलते हैं और एक बार पुनः धर्मग्रन्थों के अध्ययन के प्रति स्वयं को समर्पित करते हैं।
प्राचीन काल में ऋषि-मुनियों के उपदेश की पूर्णाहुति इसी दिन होती थी। भारत में प्राचीन काल में जब स्नातक अपनी शिक्षा पूर्ण करने के पश्चात गुरुकुल से विदा लेता था तो वह आचार्य का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए उसे रक्षासूत्र बाँधता था,जबकि आचार्य अपने विद्यार्थी को इस कामना के साथ रक्षासूत्र बाँधता था कि उसने जो ज्ञान प्राप्त किया है वह अपने भावी जीवन में उसका समुचित ढंग से प्रयोग करे,ताकि वह अपने ज्ञान के साथ-साथ आचार्य की गरिमा की रक्षा करने में भी सफल हो। इसी दिन गुरु उन्नत शासन के लिए राजाओं के हाथों में रक्षासूत्र बाँधते थे। प्रकृति भी जीवन की रक्षक है,इसलिए रक्षाबंधन के दिन कई स्थानों पर वृक्षों को भी राखी बांधी जाती है। अब तो प्रकृति संरक्षण हेतु वृक्षों को राखी बाँधने की परम्परा भी प्रारम्भ हो गयी है। हिन्दुस्तान में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पुरुष सदस्य परस्पर भाईचारे के लिए एक-दूसरे को भगवा रंग की राखी बाँधते हैं। यह सांस्कृतिक पर्व बहनों में उमंग और उत्साह को संचारित करता है,वे प्यारे भाइयों के हाथ में राखी बांधने को आतुर होती हैं। बेहद शालीन और सात्विक यह पर्व सदियों पुराना है- तब से अब तक नारी सम्मान एवं सुरक्षा पर केन्द्रित यह विलक्षण पर्व है। इस दिन बहनें अपने भाई के दायें हाथ पर राखी बाँधकर उसके माथे पर तिलक करती हैं और उसकी दीर्घ आयु की कामना करती हैं। बदले में भाई उनकी रक्षा का वचन देता है। ऐसा माना जाता है कि राखी के रंग-बिरंगे धागे भाई-बहन के प्यार के बन्धन को मजबूत करते हैं और सुख-दु:ख में साथ निभाने का विश्वास दिलाते हैं।
राखी के त्योहार का ज्यादा महत्व पहले उत्तर भारत में था। आज यह पूरे भारत में बड़े उत्साह से मनाया जाता है। महाराष्ट्र में इसे नारली पूर्णिमा के नाम से मनाया जाता है। दक्षिण भारत में इसे अवनी अविट्टम के नाम से जाना जाता है। पुराने जमाने में रक्षाबंधन का अलग महत्व था। आवागमन के साधन और सुविधाएं नहीं थीं। इसलिए ससुराल गयी बेटी के लिए यह सावन के महीने का विशेष पर्व था। राखी के बहाने स्वजनों और भाइयों से भेंट की भावना छिपी होती थी। सभी शादी-शुदा लड़कियां मायके आती थीं। सखी-सहेलियां आपस में मिलती थीं, नाचती-गाती थी और अपने लगे हाथ सुख-दुख भी मिल-बांट लेती थीं।
राखी का त्योहार कब शुरू हुआ,इसे ठीक से कोई नहीं जानता। कहते हैं देव और दानवों में जब युद्ध शुरू हुआ तो दानव हावी होते नजर आने लगे। इससे इन्द्र बड़े परेशान हो गये। वे घबराकर वृहस्पति के पास गये। इन्द्र की व्यथा उनकी पत्नी इंद्राणी ने समझ ली थी। उसने रेशम का एक धागा मंत्रों की शक्ति से पवित्र कर इन्द्र के हाथ में बांध दिया। वह श्रावण पूर्णिमा का दिन था। लोगों का विश्वास है कि इस युद्ध में इसी धागे की मंत्रशक्ति से इन्द्र की विजय हुई थी। शायद इसी प्रथा के चलते पुराने जमाने में राजपूत जब युद्ध के लिए जाते थे तो महिलाएं उनके माथे पर तिलक लगाकर हाथ में रेशमी धागा बांधती थीं। इस विश्वास के साथ कि धागा उन्हें विजयश्री के साथ वापस ले आएगा। हिंदू पुराण कथाओं के अनुसार महाभारत में पांडवों की पत्नी द्रौपदी ने भगवान श्रीकृष्ण की कलाई से बहते खून को रोकने के लिए अपनी साड़ी का किनारा फाड़ कर बांधा था। जिससे उन दोनों के बीच भाई और बहन का बंधन स्थापित हुआ था तथा श्रीकृष्ण ने उसकी जब जरूरत पड़ी रक्षा की।
राखी के बारे में प्रचलित अनेक कथाएं है,जो सोचने पर विवश कर देती हैं कि कितने महान उसूलों और मानवीय संवेदनाओं वाले थे वे लोग,जिनकी देखा-देखी एक संपूर्ण परम्परा ने जन्म ले लिया। आज परम्परा भले ही चली आ रही है,लेकिन उसमें भावना और प्यार की वह गहराई नहीं दिखायी देती। अब उसमें प्रदर्शन का घुन लग गया है। पर्व को सादगी से मनाने की बजाय बहनें अपनी सज-धज की चिंता और भाई से राखी के बहाने कुछ मिलने के लालच में ज्यादा लगी रहती हैं। भाई भी उसकी रक्षा और संकट हरने की प्रतिज्ञा लेने की बजाय जेब हल्की कर इतिश्री समझ लेता है। अब राखी में भाई-बहन के प्यार का वह ज्वार नहीं दिखायी देता जो शायद कभी रहा होगा। इसलिए आज बहुत जरूरत है दायित्वों से बंधी राखी का सम्मान करने की,क्योंकि राखी का रिश्ता महज कच्चे धागों की परम्परा नहीं है,बल्कि जहां लेन-देन की परम्परा होती है वहां प्यार तो टिक ही नहीं सकता।
रक्षाबंधन के पर्व से जुड़ी कथाएं बताती हैं कि पहले खतरों के बीच फंसी बहन का साया जब भी भाई को पुकारता था,तो दुनिया की हर ताकत से लड़कर भी भाई उसे सुरक्षा देने दौड़ पड़ता था और उसकी राखी का मान रखता था। आज भातृत्व की सीमाओें को बहन फिर चुनौती दे रही है,क्योंकि उसकी उम्र का हर पड़ाव असुरक्षित है। बौद्धिक प्रतिभा होते हुए भी उसे ऊंची शिक्षा से वंचित रखा जाता है,क्योंकि आखिर उसे घर ही तो संभालना है। इन हालातों में उसकी योग्यता,अधिकार,चिंतन और जीवन का हर सपना कसमसाता रहता है। इस परम पावन पर्व पर भाइयों को ईमानदारी से पुनः अपनी बहन ही नहीं बल्कि संपूर्ण नारी जगत की सुरक्षा और सम्मान करने की कसम लेने की अपेक्षा है। तभी राखी का यह पर्व सार्थक बन पड़ेगा और भाई-बहन का प्यार शाश्वत रह पाएगा।