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अंतर्मन में सामंजस्य और विपत्ति में रक्षा की प्रतिबद्धता है ‘रक्षाबंधन’

योगेन्द्र प्रसाद मिश्र (जे.पी. मिश्र)
पटना (बिहार)
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रक्षाबंधन पर्व विशेष………..

‘रक्षाबंधन या रक्षा कवच!
येन बद्धो बलिराजा, दानवेंद्रो महाबल:,
तेन्त्वाम् प्रतिबध्नामि, रक्षे माचल!माचल!!’
श्रावण-पूर्णिमा के दिन एक रक्षा कवच बाँधने का विधान है,जिसे बोलचाल की भाषा में राखी कहते हैं। यह पर्व एक-दूसरे के प्रति आस्था जगाने,एक-दूसरे की रक्षा करने के लिए वचनबद्ध होने का है। भले कोई किसी से रक्षा की गुहार लगाए या न लगाए,पर रक्षा करना एक कर्तव्य मानकर रक्षाबंधन का एक अनुष्ठान किया जाता है, ताकि जो रक्षा करता है और जिसकी रक्षा की जाती है,दोनों के अंतर्मन में एक सामंजस्य स्थापित हो जाए कि हर विपत्ति में वे एक-दूसरे की रक्षा करने को प्रतिबद्ध रहेंगे और यहीं रक्षाबंधन अपना स्थान ले लेता है। एक-दूहरे की रक्षा करना और खासकर बड़ों द्वारा छोटों की रक्षा करना एक रक्षा-धागा बांधकर प्रदर्शित कर दिया जाता है। यहाँ तक कि बिन मांगे ही कोई किसी को कुछ दे देता है,भले वह रक्षा का वाग्दान ही क्यों न हो, जैसा कि रक्षाबंधन के उपरोक्त मंत्र से स्पष्ट होता है,यही विशेषता इस रक्षाबंधन पर्व में निहित है।
जब किसी को कुछ देने की बात होती है तो सामान्यत: बड़े ही छोटे को कुछ देते हैं। इसीलिए जो श्रेष्ठ समझे जाते हैं,वही छोटे की रक्षा करने का अनुष्ठान करते हैं। इसीलिए बड़े छोटों का,सबल निर्बल का तो रक्षाबंधन करते ही हैं,जो निर्बल रहते हैं,वे भी सबल के हाथ में रक्षासूत्र बाँधकर उन्हें याद रखने का एक चिह्न दे देते हैं कि जिसने रक्षासूत्र बाँधा है,उसकी रक्षा करने का उनका दायित्व है। इसीलिए बहनें भाई को राखी बाँधती हैं और कभी रानी कर्मवती ने बादशाह हुमायूँ को राखी बाँधी थी। कहा तो यह भी जाता है कि सिकंदर की पत्नी ने राजा पोरस को राखी बाँधा थी,जिसके चलते पोरस ने लड़ाई में सिकन्दर को नहीं मारा। भाई द्वारा बहन की रक्षा का चलन आज प्रचलित होकर व्यापक हो गया है।
बहनें शादी हो जाने पर भाई से दूर हो जाती हैं,तो रक्षाबंधन में राखी बाँधने और अगर वह नहीं हो सकता है तो डाक द्वारा भेजने का रिवाज प्रचलित हो गया है,जिसमें बहनें बड़ी लगन से महीनेभर से लगी रहती हैं। डाक विभाग भी इस अनमोल बंधन को बनाए रखने के लिए राखी समय पर पहुंचा कर इस पावन कार्य में योगदान देता है।
इस अवसर के लिए राखी का बड़ा व्यापार भी सजता है,और व्यापारी वर्ग इसमें अच्छा लाभ कमाते हैं। अब तो सोने-चाँदी जड़ी राखियाँ भी बिकने लगी हैं और स्वस्तिक चिह्नवाली भी। चीन ने भी इस बाजार में बड़ी शिरकत की थी,पर वर्तमान संघर्ष की स्थिति में,जहाँ चीनी सामान के बहिष्कार का एक आन्दोलन चल रहा है,वहाँ जरूर चीन मात खाएगा।
सनातन धर्म के अनुसार बड़ों द्वारा छोटों को राखी बाँधने का विधान है। वैसे धार्मिक रूप से भी श्रेष्ठ माने जाने वाले अपने प्रियों (यजमान) आदि को भी राखी बाँधते हैं। घर में बड़े सभी आशीर्वाद पाने योग्य-स्त्री-पुरूष, बाल-बच्चे को राखी बाँधते हैं। कहीं-कहीं तो घर-घर जाकर राखी बाँधने-बँधवाने का भी रिवाज है।
‘रक्षाबन्धन एक हिन्दू व जैन त्योहार है जो प्रतिवर्ष श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। श्रावण (सावन) में मनाए जाने के कारण इसे श्रावणी (सावनी) या सलूनो भी कहते हैं। रक्षाबन्धन में राखी या रक्षासूत्र का सबसे अधिक महत्व है। राखी कच्चे सूत जैसे सस्ती वस्तु से लेकर रंगीन कलावे,रेशमी धागे,तथा सोने या चाँदी जैसी मँहगी वस्तु तक की हो सकती है। रक्षाबंधन भाई-बहन के रिश्ते का प्रसिद्ध त्योहार है, रक्षा का मतलब सुरक्षा और बंधन का मतलब बाध्य है। रक्षाबंधन के दिन बहनें अपने भाईयों की तरक्की के लिए भगवान से प्रार्थना करती हैं। राखी सामान्यतः बहनें भाई को ही बाँधती हैं परन्तु ब्राह्मणों,गुरुओं और परिवार में छोटी लड़कियों द्वारा सम्मानित सम्बंधियों (जैसे पुत्री द्वारा पिता को) भी बाँधी जाती है। कभी-कभी सार्वजनिक रूप से किसी नेता या प्रतिष्ठित व्यक्ति को भी राखी बाँधी जाती है। यहाँ तक कि पेड़़ को भी राखी बाँधी जाती है।
कुछ पौराणिक कथाओं में इसका जिक्र है जिसके अनुसार भगवान विष्णु के वामनावतार ने भी राजा बलि को रक्षासूत्र बांधा था और उसके बाद ही उन्हें पाताल जाने का आदेश दिया था।
रक्षाबंधन का संबंध हिंदू धर्म के साथ जैन धर्म से भी जुड़ा है। रक्षाबंधन का पर्व जैन अनुयायी भी मनाते हैं,जैन अनुयायियों का मानना है कि श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन श्रुतसागर और उनके सभी शिष्यों को विष्णुकुमार ने राजा पद्मराज के मंत्री के अत्याचारों से मुक्त कराया था और उन्हें वापस चैतन्य अवस्था में लाए थे।
इसी उपलक्ष्य में जैन धर्म में भी रक्षाबंधन पर्व मनाया जाता है।
रक्षाबंधन तो है, पर आज की विषम परिस्थिति में बिना संपर्क में आए रक्षाबंधन कैसे मनाएं। अगर राखी बाँधना आवश्यक हो तो हाथ स्वच्छ(सेनिटाईज)कर और मुँह पट्टी लगाकर ही राखी बाँधें। हर्ष-उल्लास के इस पर्व हित पर शुभकामनाएं।

परिचय-योगेन्द्र प्रसाद मिश्र (जे.पी. मिश्र) का जन्म २२ जून १९३७ को ग्राम सनौर(जिला-गोड्डा,झारखण्ड) में हुआ। आपका वर्तमान में स्थाई पता बिहार राज्य के पटना जिले स्थित केसरीनगर है। कृषि से स्नातकोत्तर उत्तीर्ण श्री मिश्र को हिन्दी,संस्कृत व अंग्रेज़ी भाषा का ज्ञान है। इनका कार्यक्षेत्र-बैंक(मुख्य प्रबंधक के पद से सेवानिवृत्त) रहा है। बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन सहित स्थानीय स्तर पर दशेक साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए होकर आप सामाजिक गतिविधि में सतत सक्रिय हैं। लेखन विधा-कविता,आलेख, अनुवाद(वेद के कतिपय मंत्रों का सरल हिन्दी पद्यानुवाद)है। अभी तक-सृजन की ओर (काव्य-संग्रह),कहानी विदेह जनपद की (अनुसर्जन),शब्द,संस्कृति और सृजन (आलेख-संकलन),वेदांश हिन्दी पद्यागम (पद्यानुवाद)एवं समर्पित-ग्रंथ सृजन पथिक (अमृतोत्सव पर) पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। सम्पादित में अभिनव हिन्दी गीता (कनाडावासी स्व. वेदानन्द ठाकुर अनूदित श्रीमद्भगवद्गीता के समश्लोकी हिन्दी पद्यानुवाद का उनकी मृत्यु के बाद,२००१), वेद-प्रवाह काव्य-संग्रह का नामकरण-सम्पादन-प्रकाशन (२००१)एवं डॉ. जितेन्द्र सहाय स्मृत्यंजलि आदि ८ पुस्तकों का भी सम्पादन किया है। आपने कई पत्र-पत्रिका का भी सम्पादन किया है। आपको प्राप्त सम्मान-पुरस्कार देखें तो कवि-अभिनन्दन (२००३,बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन), समन्वयश्री २००७ (भोपाल)एवं मानांजलि (बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन) प्रमुख हैं। वरिष्ठ सहित्यकार योगेन्द्र प्रसाद मिश्र की विशेष उपलब्धि-सांस्कृतिक अवसरों पर आशुकवि के रूप में काव्य-रचना,बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के समारोहों का मंच-संचालन करने सहित देशभर में हिन्दी गोष्ठियों में भाग लेना और दिए विषयों पर पत्र प्रस्तुत करना है। इनकी लेखनी का उद्देश्य-कार्य और कारण का अनुसंधान तथा विवेचन है। पसंदीदा हिन्दी लेखक-मुंशी प्रेमचन्द,जयशंकर प्रसाद,रामधारी सिंह ‘दिनकर’ और मैथिलीशरण गुप्त है। आपके लिए प्रेरणापुंज-पं. जनार्दन मिश्र ‘परमेश’ तथा पं. बुद्धिनाथ झा ‘कैरव’ हैं। श्री मिश्र की विशेषज्ञता-सांस्कृतिक-काव्यों की समयानुसार रचना करना है। देश और हिंदी भाषा के प्रति आपके विचार-“भारत जो विश्वगुरु रहा है,उसकी आज भी कोई राष्ट्रभाषा नहीं है। हिन्दी को राजभाषा की मान्यता तो मिली,पर वह शर्तों से बंधी है कि, जब तक राज्य का विधान मंडल,विधि द्वारा, अन्यथा उपबंध न करे तब तक राज्य के भीतर उन शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाता रहेगा, जिनके लिए उसका इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले प्रयोग किया जा रहा था।”

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