अजय बोकिल
भोपाल(मध्यप्रदेश)
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अच्छा हुआ जो शिवराज सरकार ने मध्यप्रदेश में जिला संग्राहक(कलेक्टर)का पदनाम बदलने की एक गैरजरूरी कोशिश को तिलांजलि दे दी। सरकार ने इस काम के लिए गठित उच्चस्तरीय समिति को भी भंग कर दिया। दरअसल,यह एक अनावश्यक मशक्कत थी,जो पूर्ववर्ती कमलनाथ सरकार करना चाहती थी,क्योंकि संग्राहक पदनाम बदलना न तो ‘औरंगजेब रोड’ को ‘अब्दुल कलाम रोड’ करने जैसा है,न ही ‘सचिवालय’ को ‘मंत्रालय’ की हैसियत बख्शने का मामला है। न तो यह औपनिवेशिक तंत्र को लोकतांत्रिक प्रशासन में बदलने की जिद थी,न ही हुकूमत को ज्यादा संवेदनशील चेहरा प्रदान करने का आग्रह था। अगर मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की बात करें तो इन समान राजनीतिक और प्रशासनिक तासीर वाले राज्यों में ‘संग्राहक’ शब्द राजभाषा से लेकर लोक भाषा तक में इतना रच-बस चुका है कि,भावार्थ अलग से बताने की जरूरत नहीं है,क्योंकि इस शब्द में ही सत्ता,दंडाधिकार और प्रबंधन एकाकार हो चुके हैं। उसमें एक रौब और दायित्वबोध अंतर्निहित है।
दरअसल,राजा,सरकार और संग्राहक ३ ऐसे शब्द हैं,जो वक्त और निजाम बदलने के बाद भी लोकमानस में गहरी जड़ें जमाए हुए हैं। खासकर ‘कलेक्टर’ शब्द को आजाद भारत में ‘लोकतांत्रिक’ बनाने की बहुतेरी कोशिशें हुईं,लेकिन नाकामयाब रहीं। कारण प्रशासन में जिला स्तर पर यही एक ऐसा पद है,जिसके पास असाधारण अधिकार होते हैं। एक अर्थ में वह ‘जिले का राजा’ और सरकार के आँख-कान और हाथ भी होता है। बावजूद तमाम आलोचनाओं के इतना तो मानना पड़ेगा कि अंग्रेज अपने लाभ के लिए ही सही,देश में जो प्रशासनिक ढांचा खड़ा कर गए हैं,उसमें कोई बुनियादी बदलाव हम आज तक नहीं कर पाए हैं,सिवाय ‘राजा’ को प्रधानमंत्री
या मुख्यमंत्री
कहने के।
दरअसल,संग्राहक का पद भी ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के भारत में बंगाल के पहले गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्ज के दिमाग और सोच की उपज था। इसके पहले वहां नायब सूबेदार हुआ करते थे। हेस्टिंग्ज ने बंगाल के लेफ्टिनेंट गवर्नर सर जाॅर्ज कैम्पबेल के साथ मिलकर जिलों के प्रमुख के रूप में एक ऐसे पद की कल्पना की,जो किसी क्षेत्र विशेष का विशेषज्ञ भले न हो और तमाम विभागों का बोझा ढोने के बजाए जिला स्तर पर एक ‘नियंत्रक प्राधिकारी’ की तरह काम करे। हेस्टिंग्ज ने यह व्यवस्था १७७२ में लागू की। देश का पहला जिला संग्राहक संभवत: गेरार्ड गुस्ताव डयूकारेल को माना जाता है। ड्यूकारेल पहले पर्यवेक्षक(सुपरवाइजर)के पद पर थे। बाद में पूर्णिया(बिहार)जिले के संग्राहक बने। उन्हें उन दिनों प्रचलित सती प्रथा
को सख्ती से रोकने के लिए आज भी आदर के साथ याद किया जाता है। ब्रिटिश राज में शुरू में अंग्रेज ही संग्राहक होते थे,बाद में भारतीय भी होने लगे। रोमेशचंद्र दत्त पहले भारतीय जिलाधीश थे।
कहने का आशय ये कि,इस देश में कलेक्टर
शब्द २३८ साल से प्रचलन में है और वर्तमान में देशभर में ७१८ जिले हैं। अर्थात इतने ही संग्राहक भी। मध्यप्रदेश में कमलनाथ ने सत्ता संभालते ही राज्य में कुछ मूलभूत बदलाव करने का इरादा जताया था,उसमें से एक संग्राहक पदनाम बदलना भी था। हालांकि,उनकी इस घोषणा पर अमल तब शुरू हुआ,जब उनकी सरकार जाने में महज एक माह बचा था। तब सरकार ने ५ वरिष्ठ आईएएस अधिकारियों की एक कमेटी बनाई थी,जिसे जिम्मेदारी दी गई थीl समिति ने प्रतिनिधियों से बात की थी,लेकिन दोनो ने ही कोई और पदनाम करने पर असहमति जताई थी। दलील थी कि,जब काम वही रहना है तो नाम बदलने का क्या मतलब ?
सवाल है कि,सरकार पदनाम क्यों बदलना चाहती थी ? और इससे क्या हासिल होना था सिवाय प्रतीकात्मक बदलाव के ? माना जाता है कि,इसके पीछे यह अवधारणा थी कि अंग्रेजों द्वारा प्रणीत ‘कलेक्टर’ शब्द से तात्पर्य ‘संग्राहक’ से है। अर्थात लगान संग्राहक,जबकि संग्राहक व्यवहार में काफी हद तक १ जिले का ‘मालिक’ या प्रशासनिक मुखिया होता है। आजकल की शब्दावली में उसे जिले का सीईओ
कहना ज्यादा उचित होगा। जिलाधीश की सोच,कार्य-शैली और ऊर्जस्विता सम्बन्धित जिले में प्रशासन की दिशा और दशा तय करती है। वह जिले में कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए भी जिम्मेदार होता है। कलेक्टर चाहे तो कुछ नया और प्रभावी करने का पर्याप्त स्थान उसके पास होता है। इसलिए,यह मान लेना कि वह महज ‘कर संग्राहक’ है,पूरी तरह गलत है। वह कोई रेलवे का ‘टिकट संग्राहक’ नहीं है। अब जिलाधीश की जिम्मेदारियां और बहुउद्देश्यीय व ज्यादा व्यापक हो गई हैं। हालांकि,इस लिहाज से संग्राहक का सही पदनाम ‘डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट’ (डीएम) होना चाहिए।
मान लें कि,पदनाम बदलने की पहल सही भी थी तो सवाल यह भी है कि इसकी जगह कौन-सा पदनाम सटीक होगा। वर्तमान में कलेक्टर के लिए हिंदी सहित भारतीय भाषाओं में विभिन्न राज्यों में अलग-अलग पदनाम चलन में हैं। कलेक्टर को अमूमन ‘डीएम’ तो महाराष्ट्र व कुछ अन्य राज्यों में जिल्हाधिकारी या जिलाधीश कहा जाता है। पंजाब में डीसी
शब्द प्रचलन में है।
कलेक्टर पदनाम बदलने के पीछे मुख्य तर्क यह था कि,इससे औपनिवेशिक काल की बू आती है,जो स्वतंत्र भारत में अस्वीकार्य है। बात वाजिब है कि अंग्रेजों के जमाने का यह मजबूत प्रशासनिक अवशेष भी क्यों बना रहे ? लेकिन जो विकल्प हैं,वो तो और भी लचर हैं। मान लीजिए कलेक्टर को जिलाधिकारी कहा जाता है तो बाकी विभागों के जिला प्रमुख क्या कहलाएंगे ? एक सुझाव जिलाधीश का भी है,लेकिन यह शब्द ही अपने आप में राजशाही को प्रदर्शित करता-सा लगता है। जब लोकतंत्र में जनता ही ‘ईश’ है तो कोई अधिकारी उसका ईश कैसे हो सकता है ? कलेक्टर के लिए सर्वाधिक मान्य डीएम शब्द है,लेकिन हिंदी में इसका पर्याय ‘जिला दंडाधिकारी’ जैसा कठिन और अहसज-सा शब्द है बल्कि,इस से लोकतंत्र
की जगह ठोकतंत्र
का भाव प्रकट होता है। बेशक कलेक्टर के पास सीमित न्यायिक दंडाधिकार होते हैं, लेकिन वह ‘न्यायाधीश’ का पर्याय नहीं है और न ही होना चाहिए। इसीलिए अंग्रेजी शब्द ‘जज’ के हिंदी पर्याय ‘न्यायाधीश’ का कभी विरोध नहीं हुआ,क्योंकि भी न्यायदान एक अर्थ में ईश्वरीय कृत्य के समकक्ष है।
कलेक्टर किसी भी जिले में प्रशासन का चेहरा आज भी है,और तब भी रहते। उल्टे यह भी हो सकता था कि ‘शेर’ को ‘बाघ’ बनाने के चक्कर में वह बिल्ली भी न रह जाता। वैसे भी शेक्सपीयर ने कहा है कि,-नाम में क्या रखा है ? गुलाब को कुछ और कह लें तो भी वह गुलाब ही रहेगा।