रोहित मिश्र,
प्रयागराज(उत्तरप्रदेश)
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सड़क हादसे में रवि अपना एक पैर गंवाने से पूरी तरिके से सदमे में आ चुका था। वही इकलौता घर में कमाने वाला सदस्य था। बुजुर्ग माँ-बाप भी परेशान हुए जा रहे थे कि अब उनके बेटे से शादी कौन करेगा ? रिश्तेदार और पड़ोसी भी धीरे-धीरे रवि के परिवार से मुँह फेरने लगे थे। रवि के साथ पूरा परिवार हालात से उबरने की भरपूर कोशिश कर रहा था। दिव्यांग (विकलांग)होने के बाद रवि अब सेल्स-मार्केटिंग का काम भी नहीं कर सकता था। रवि ने सोचा घर चलाने के लिए कुछ तो करना ही पड़ेगा। रवि ने अपने बापू जी से कहा-‘पिता जी पास के चौराहे पर ही शंभू जी की दुकान खाली है और कालेज भी नजदीक ही है,क्यों न शंभू जी से बात करके उनकी दुकान किराए पर ले ली जाए और उसमें बुक स्टेशनरी की दुकान खोल ली जाए ?’
पिता जी रवि की बात से तुरंत सहमत हो गए और बात करके दुकान किराए पर ले ली। दुकान को सुबह १० से शाम ६ बजे तक रवि और शाम ६ बजे से रात १० बजे तक रवि के पिता जी संभालने लग गए। दुकान की थोड़ी-बहुत आमदनी से घर का खर्चा निकलने लग गया।
ऐसे ही दिन गुजर रहे थे। एक दिन रवि दुकान में खाली बैठा था,वैसे तो वो पढ़ने में वह ठीक,ठाक ही था पर उस दिन वह इतेफाक से रोजगार समाचार अखबार के पन्ने पलट रहा था कि,बरबस उसकी नजर एक सरकारी नौकरी की ओर जा टिकी जिसमें कुछ सीटे दिव्यांगों के लिए भी आरक्षित थी। उसको उम्मीद की किरण दिखने लगी। जो वह अपने पैरों के होते हुए न पा सका था,वह अब दिव्यांग रहते हुए पा सकता था।
उसने यह बात बुजुर्ग माता-पिता को बताई। रवि के माता-पिता रवि की तरह ही सकारात्मक सोच के थे। रवि ने सरकारी नौकरी के लिए तैयारी करने की ठानी और जी-जान से मेहनत करनी शुरु कर दी। रवि के पिता जी अब दुकान शाम ६ के बजाय दोपहर १२ बजे ही पहुंच जाते थे,ताकि रवि दुकान में रहकर ही पढ़ाई कर सके,और दुकान वो देख लिया करें।कुछ ही सालों में रवि की मेहनत रंग लाई और उसका चयन दिव्यांग वर्ग के तहत सरकारी विभाग में हो गया। दिव्यांग होने के बाद जिस रवि को उसके रिश्तेदार और पड़ोसी भी नही पूछते थे,उस रवि के लिए अब अच्छे-अच्छे घरों से रिश्ते आने लगे थे। ये सब उसकी संकल्प शक्ति के कारण ही हुआ।