संदीप धीमान
चमोली (उत्तराखंड)
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परेशानियों में अक्सर कड़वाहट बढ़ जाती है,
जुबां अपनी, अपनों पर ही भारी पड़ जाती है।
लफ़्ज़ों का सलीका जो मोहब्बत का था उनसे,
उलझनों में तार-तार हदें तमाम गढ जाती है।
गुमसुम ही सही था क्यों लफ़्ज़ों पर बात डाली,
सोच उस दृश्य को मेरी आँखें नम पड़ जाती हैं।
गुस्ताखियाँ चाह से नहीं, फिजूल ही हो जाती है,
परेशानी में दुश्वारियाँ और भी आड़े अड जाती हैं।
‘माफ़ी’ शब्द कहीं बहुत ही पीछे छूट जाते हैं यहां,
बीच कहीं भावनाओं की दीवार खड़ी हो जाती है॥