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कौन है दोषी ?

शशि दीपक कपूर
मुंबई (महाराष्ट्र)
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प्रकृति से खिलवाड़…

सुरंग विकास परियोजना से कई वर्ष पहले अधिकतर लोग पहाड़ों पर पर्यटकों को आकर्षित करने व रोजी-रोटी के लिए बस गए। इन लोगों ने बिना सरकारी अनुमति लिए पहाड़ों के सबसे निचले हिस्से में सबसे पहले अपने अस्थाई घर बनाने आरंभ किए। धीरे-धीरे एक दूसरे की देखा-देखी से कच्ची-पक्की झोपड़ियों व मकानों से पहाड़ बस्तियों में तब्दील हो गया। वहां लगे बिजली के टावरों से बिजली पहले असंवैधानिक तरीके से प्राप्त की। कालांतर में बस्ती, गाँव, कस्बा, शहर से नगर में तब्दील हो गई।
हिमाचल प्रदेश व उत्तराखंड के पहाड़ों की मिट्टी की पकड़ नरम है। पहाड़ उतने पथरीली सतह के नहीं हैं, जितने पूर्वांचल, पश्चिमी व दक्षिण भारत के। इन प्रदेशों के पहाड़ों की स्थिति देखकर साधारण-जन को भी अंदाजा लग जाता है कि इन पहाड़ों पर मकान बनाकर रहना किसी खतरे से खाली नहीं है। प्रश्न उठता है कि, क्या सर्वेक्षण वैज्ञानिकों को इस मूलभूत तथ्य की जानकारी या अहसास नहीं था ? दूसरा कि, भौगोलिक स्थिति के अनुसार इन पहाड़ों के नीचे परत हैं जिससे भूकंप का खतरा अधिक बना रहता है।
वास्तव में, भारत में इतनी अधिक आबादी हो गई है कि, लोग ऐसे स्थानों पर रहने को विवश हैं और सरकार बनाने के लिए उस जगह के नेता-साधक अपनी पार्टी के लिए और अपनी स्थाई कुर्सी बनाने में तल्लीन हैं। ऐसी स्थिति में यकीनन अशिक्षित और शिक्षित जनता तूफानों में फसल-सी गिरती रहेगी और उत्पन्न हो पनपती भी रहेगी। घटनाओं का क्या! वे निश्चित समय के बाद में समयकाल में समा जाएंगी। और अपने-अपने संघर्ष व समकालीन उर्वरता में बहते-बहते लोग भूल भी जाएंगे।‌ लम्बे समय तक छोटी-छोटी घटनाएं भला कौन स्मरण रखेगा ? और तो और इतिहास या भूगोल भी नहीं बताएगा ? जैसा कि अमूमन यही होता है कि, कुछ बातें या तथ्य साहित्य में कहानी-किस्सों में पसर जाते हैं। मात्र इतना ही शेष रह जाएगा।
पक्ष-विपक्ष-सत्ता के बीच ये दरकते पहाड़
बढ़ती दरारें हैं। पूर्वांचल बहुत ही इत्मीनान से बिना किसी रूं-रां के विकसित हो गया। वहां कोई पहाड़ नहीं खिसका। कारण वहां कठोर पथरीले पर्वतों की श्रृंखलाएं हैं और अन्य किसी का कोई हस्तक्षेप भी नहीं हुआ।
यह मानने में संकोच कैसा कि, हम सबकी एक आदत बन चुकी है अपनी कमी या गलती दूसरों के सिर मढ़कर छुटकारा पाने की, क्योंकि आपत्ति आने पर सरकार के सिर कई बार मुकुट-कुण्डल चढ़ाने की शत्- प्रतिशत खालिस अजमाई हुई अदा सबके पास मौजूद हैं।
और यदि आपदा न हो तो सब चलते रहो.. आँख मूंद के। होता है जो होने दो…, यहां कौन अपना है। जाने दो उन्हें, जो चले गए…।इतना निकम्मा-ढीलापन तन-मन पर ढोने की आदी हो चुकी हैं हमारी समस्त व्यवस्थाएं।
उस पर आग में घी का काम करते-फिरते…।
अब तक समझ ही गए होगें, कौन दोषी है ?-
आखिर कहीं तो दिखें मासूम इन्सानियत की हदें,
हम पनाह लिए बैठे शून्य से धर्म-अधर्म के किस्से॥

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