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‘माँ’ के आगे सभी रिश्ते बौने

ललित गर्ग

दिल्ली
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माँ और हम (मातृ दिवस विशेष)…

‘मातृ दिवस’ समाज में माताओं के प्रभाव व सम्मान का वैश्विक उत्सव है, जो माताओं और मातृतुल्य विभूतियों का सम्मान करता है। माताओं द्वारा अपनी संतान, परिवार और समाज के लिए उनके बलिदान, अमूल्य योगदान और समर्पण को याद करने, सम्मान देने एवं पूजने का पवित्र दिन है। मातृ दिवस या माताओं का दिन, इसे चाहे जिस नाम से पुकारें, यह दिन सबके मन में विशेष स्थान लिए हुए है। ‘अंतर्राष्ट्रीय मातृ दिवस’ अन्ना जार्विस द्वारा स्थापित किया गया था, जो उनकी माँ के मानवीय कार्यों के प्रति समर्पण से प्रेरित था।

माँ के उपकार इतने बड़े हैं कि, इंसान अगर पूरी जिंदगी भी समर्पित कर दे तो ऋण से उऋण नहीं हो सकता है। संतान के लालन-पालन के लिए हर दु:ख का सामना बिना किसी शिकायत के करने वाली माँ के साथ बिताए दिन सभी के मन में आजीवन सुखद व मधुर स्मृति के रूप में सुरक्षित रहते हैं।
विश्व के विभिन्न भागों में मातृत्व दिवस अलग-अलग दिन एवं अलग-अलग तरीकों से मनाया जाता है। जापान में माताओं को उपहार में दिया गया प्यार कृतज्ञता का प्रतीक है। मातृ दिवस का इतिहास करीब ४०० वर्ष पुराना है। भारतीय संस्कृति में माँ के प्रति लोगों में अगाध श्रद्धा रही है, लेकिन आज आधुनिक दौर में जिस तरह से यह मनाया जा रहा है, उसका इतिहास भारत में बहुत पुराना नहीं है। इसके बावजूद तीन-चार दशक से भी कम समय में भारत में यह दिवस काफी तेजी से लोकप्रिय हो रहा है।
माँ शब्द में संपूर्ण सृष्टि का बोध होता है। ‘माँ’ शब्द में वह आत्मीयता एवं मिठास छिपी हुई होती है, जो अन्य किसी शब्द में नहीं होती। माँ नाम है संवेदना, भावना और अहसास का। माँ के आगे सभी रिश्ते बौने पड़ जाते हैं। मातृत्व की छाया में माँ न केवल बच्चों को सहेजती है, बल्कि आवश्यकता पड़ने पर उसका सहारा बन जाती है। समाज में माँ के ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है, जिन्होंने अकेले ही अपने बच्चों की जिम्मेदारी निभाई। कवि रॉबर्ट ब्राउनिंग ने मातृत्व को परिभाषित करते हुए कहा है-“सभी प्रकार के प्रेम का आदि उद्गम स्थल मातृत्व है और प्रेम के सभी रूप इसी मातृत्व में समाहित हो जाते हैं। प्रेम एक मधुर, गहन, अपूर्व अनुभूति है, पर शिशु के प्रति माँ का प्रेम एक स्वर्गीय अनुभूति है।”
हर संतान अपनी माँ से ही संस्कार पाता है, लेकिन मेरी दृष्टि में संस्कार के साथ-साथ शक्ति भी माँ ही देती है। इसलिए, हमारे देश में माँ को शक्ति का रूप माना गया है और वेदों में माँ को सर्वप्रथम पूजनीय कहा गया है। श्रीमद् भगवद् पुराण में उल्लेख मिलता है कि, माता की सेवा से मिला आशीष सात जन्मों के कष्टों व पापों को दूर करता है और उसकी भावनात्मक शक्ति संतान के लिए सुरक्षा कवच का काम करती है। प्रख्यात वैज्ञानिक और भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ.ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने माँ की महिमा को उजागर करते हुए कहा है कि,-“जब मैं पैदा हुआ, इस दुनिया में आया, वो एकमात्र ऐसा दिन था, मेरे जीवन का जब मैं रो रहा था और मेरी माँ के चेहरे पर एक सन्तोषजनक मुस्कान थी।”
अब्राहम लिंकन का माँ के बारे में मार्मिक कथन है कि,-” जो भी मैं हूँ, या होने की उम्मीद है, मैं उसके लिए अपनी प्यारी माँ का कर्जदार हूँ।”
किसी औलाद के लिए ‘माँ’ शब्द का मतलब सिर्फ पुकारने या फिर संबोधित करने से ही नहीं होता, बल्कि उसके लिए माँ शब्द में ही सारी दुनिया बसती है। क्या कभी आपने सोचा है कि ठोकर लगने पर या मुसीबत की घड़ी में माँ ही क्यों याद आती है, क्योंकि वो माँ ही होती है जो हमें तब से जानती है, जब हम अजन्मे होते हैं। बचपन में हमारा रातों का जागना, जिस वजह से कई रातों तक माँ सो भी नहीं पाती थी। वह गीले में सोती और हमें सूखे में सुलाती। जितना माँ ने हमारे लिए किया है, उतना कोई दूसरा कर ही नहीं सकता। जाहिर है माँ के प्रति आभार व्यक्त करने के लिए एक दिन नहीं बल्कि एक सदी, कई सदियाँ भी कम हैं। माँ अपने-आपमें पूर्ण संस्कारवान, मनुष्यत्व व सरलता के गुणों का सागर है। माँ जन्मदात्री ही नहीं, बल्कि पालन-पोषण करने वाली जीवन-निर्मात्री भी है। माँ तो ममता की सागर होती है, लेकिन माँ की इस ममता को नहीं समझने वाले कुछ आधुनिक बच्चे यह भूल बैठते हैं कि, इनके पालन-पोषण के दौरान इस माँ ने कितनी कठिनाइयाँ झेली होगी।
माँ के अंदर प्रेम की पराकाष्ठा है, या यूँ कहें कि माँ ही प्रेम की पराकाष्ठा है। प्रेम की यह चरमता केवल माताओं में ही नहीं, वरन् सभी मादा जीवों में देखने को मिलती है। अपने बच्चों के लिए भोजन न मिलने पर जल-पक्षिनी हवासिल (पेलिकन) अपना पेट चीर कर अपने बच्चों को अपना रक्त-मांस खिला-पिला देती है, किन्तु त्याग की यह चरमता ही माँ अर्थात् नारी जाति की शत्रु बन गई। समाज पुरुष प्रधान होता गया और नारी का अवमूल्यन होता गया। धीरे-धीरे वह पुरुष की उपभोग्या, उसके ‘चरणों की दासी’ बनकर रह गई। अतः नारी के अवमूल्यन के साथ-साथ पुरुष जाति का नैतिक अधःपतन होता गया, पर माँ के मातृत्व के भाव में बदलाव नहीं आया।

माँ को धरती पर विधाता की प्रतिनिधि कहा जाए तो, अतिशयोक्ति नहीं होगी। सच तो यह है कि, माँ विधाता से कहीं कम नहीं है। माँ विधाता की रची इस दुनिया को फिर से अपने ढंग से रचने वाली विधाता है। माँ सपने बुनती है और यह दुनिया उसी के सपनों को जीती है व भोगती है। पहली किलकारी से लेकर आखिरी साँस तक माँ अपनी संतान का साथ नहीं छोड़ती। माँ ही अपनी संतानों के भविष्य का निर्माण करती है। इसीलिए माँ को प्रथम गुरु कहा गया है। इसलिए यह आवश्यक है कि, मातृत्व के भाव पर नारी मन पर किसी दूसरे भाव का असर न आए। जैसा आज कन्या भ्रूणों की हत्या का जो सिलसिला बढ़ रहा है, वह नारी-शोषण का आधुनिक वैज्ञानिक रूप है तथा उसके लिए मातृत्व ही जिम्मेदार है। मातृ-दिवस को मनाते हुए मातृ-महिमा पर छा रहे ऐसे अनेक धुंधलों को मिटाना जरूरी है, तभी इस दिवस की सार्थकता है।