कपिल देव अग्रवाल
बड़ौदा (गुजरात)
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सोचने दो और थोड़ा सोचने दो और, किस तरह से कम करें हम यंत्र सा यह शोर
सोचने दो और।
खा गया यह शब्द कोमल, पी गया संगीत,
अनसुना-सा हो गया है, जिंदगी का गीत
आधार सूखे, नयन गीले, दिखते हर ओर,
सोचने दो और।
सूर्य से कहते न बनता, दो वही फिर धूप,
बादलों से भी छिना वह बादलों का रूप
हर तरफ गहरे अंधेरे, दूर मीलों भोर,
सोचने दो और ।
उपवनों से क्या शिकायत, फूल का क्या दोष,
कर दिए खाली समय ने सुरभि के सब कोश
पर कहें किससे कि है अन्याय यह तो घोर,
सोचने दो और।
साँस लें हम या ना लें हम, है किसे परवाह,
कुछ करें हम कम न होगा, यह धुआं यह दाह।
है बहुत बोझिल कुहासा, हैं बड़े कमजोर,
सोचने दो और॥