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धरती पर ही

हेमराज ठाकुर
मंडी (हिमाचल प्रदेश)
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धधक रही है विश्व धारा आज, ज्वालाओं सी बैर-विकारों से
अराजकताएं है कहीं फैली तो, कहीं जल रही है भ्रष्टाचारों से।

अम्बर का सब पानी बुझा न सके, कहाँ ठंडक चाँद सितारों से ?
यह नस-नस में फैली नफरत कैसे, हो सकेगी दूर सरकारों से ?

ईर्ष्या, द्वेष, वैमनस्यी आग से, हर देश है दुनिया में झुलस रहा
कहीं जाति-धर्म के झगड़े हैं, कहीं आम आदमी सत्ता से उलझ रहा।

खतरे में आज है समूची दुनिया, न के महज एक मानव प्राणी
आतंकवाद कहीं दमन की नीति, हर देश की देखो एक कहानी।

रोग-शोक और महामारी, भ्रष्टाचार से मानवता सब भूल गए
नकली जीवन, झूठ फरेबी, सच्चे तो मशाल से ढूंढने को ही रहे।

भाई-भाई का बैरी बना है, बाप-बेटों में भी तो आज दरारें हैं
बहनों के साथ भी निभती कहाँ ? पति-पत्नी में भी तकरारें हैं।

अध्यात्म से होती दूर यह दुनिया, जल रही है दहकते अंगारों-सी
धो सकेगी मैल ये विकारों का, आध्यात्म की पावन जलधारा ही।

पर लोग कहाँ सुनते बात यहाँ अब, ज्ञान, ध्यान व संस्कारों की
होड़ लगी है सबमें तो बस, कैसे कृपा मैं पा सकूं सरकारों की।

धन से बड़ा तो कुछ नहीं लगता, आज दुनिया में देखो लोगों को।
लालसा बढ़ी कि, भोग ले धरती पर ही, स्वर्ग के सारे भोगों को॥