अजय जैन ‘विकल्प’
इंदौर(मध्यप्रदेश)
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सभ्य है समाज, पर घना अँधेरा है,
फिर स्त्री-अस्मिता को पाप ने घेरा है।
कैसी आग है जो बुझती है बस जिस्म से,
हे सुदर्शन आओ, अब भी पापियों का डेरा है॥
शर्म नहीं आती, यूँ तन नोंचते हुए,
डरते नहीं वहशी पुरुषत्व खोते हुए।
क्यों आखिर ऐसा बार-बार होता है ?
वो लुट गई और ईश्वर ने मुँह फेरा है।
सभ्य है समाज, पर…॥
सलीका था, तड़क-भड़क से दूर थी,
वो सेवा में थी, कौन-सी गलती थी।
पापी से लड़ी, पर ज़िंदगी हार गई,
बेबस हो खुद को मौत में घेरा है।
सभ्य है समाज, पर…॥
आओ लड़ें, कि हक है जीना हमारा,
आओ चलें, कि हँसना हक है हमारा।
आओ चिंगारी बनें, कि बढ़ना अधिकार है हमारा,
आओ सत्ता को जगाएं, कि दुष्टों का घेरा है।
सभ्य है समाज, पर…॥