डॉ. मीना श्रीवास्तव
ठाणे (महाराष्ट्र)
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शिक्षक समाज का दर्पण….
महनीय शिक्षाविद सर्वप्रिय शिक्षक डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन अपने एक प्रसिद्ध भाषण में कहते हैं,-“शिक्षा का उद्देश्य केवल ज्ञान प्राप्त करना नहीं है, बल्कि व्यक्ति को समाज के लिए उपयोगी बनाना भी है। एक अच्छा शिक्षक अपने विद्यार्थियों को न केवल ज्ञान देता है, बल्कि उन्हें अच्छे नागरिक भी बनाता है।”
डॉ. राधाकृष्णन ने १३ मई (१९६२) को आजाद भारत के द्वितीय राष्ट्रपति के रूप में पदभार ग्रहण किया, तब उस वर्ष उनके विद्यार्थियों ने जब ५ सितम्बर १९६२ को उनका ७७ वां जन्मदिन मनाने की उनसे अनुमति मांगी तो, उन्होंने कहा,-“यह दिन इस राधाकृष्णन के जन्मदिवस के रूप में नहीं, बल्कि शिक्षकों को समर्पित करते हुए शिक्षक दिवस के रूप में मनाओ।” डॉक्टर राधाकृष्णन शिक्षाविद होने के साथ ही भारतीय संस्कृति के ज्ञाता एवं जगत संवाहक, महान दार्शनिक और सम्पूर्ण आस्थावान हिन्दू विचारक थे। उनके इन्हीं गुणों के कारण १९५४ में भारत सरकार की ओर से उन्हें सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से अलंकृत किया गया था। यह किसी भी गैर-राजनीतिज्ञ के जीवन की आश्चर्यकारक यात्रा थी, जो राजनयिक क्षेत्र में अत्यंत कुशल राजदूत से शुरू होकर राष्ट्रपति के पद तक पहुँच गई। ऐसे सुविद्य आदर्श शिक्षकों का मूल भारतीय संस्कृति में दिखाई देता है। देवगुरु बृहस्पति को असुरगुरु शुक्राचार्य का विरोध सहना पड़ा। यही नहीं, देवासुर संग्राम युगों-युगों तक चलता रहा। जिस प्रकार देवों में सदाचार के सद्गुण तो थे, परन्तु देवराज इन्द्र की सिंहासन लालसा एवं स्त्री लोलुपता किसी से छिपी नहीं थी, इसके विपरीत शुक्राचार्य जैसे अवगुणों को प्रोत्साहन देने वाले गुरु होकर भी सर्वगुणसम्पन्न विष्णुभक्त प्रल्हाद और बलि राजा असुरों की कंटीली बाड़ में जवाकुसुम की भांति खिले थे! श्रीराम के गुरु वशिष्ठ एवं विश्वामित्र थे तो उनके पुत्र लव-कुश के गुरु वाल्मीकि। सद्गुणों की खान रहे इन गुरुजनों से प्रत्यक्ष विष्णु के अवतार राम ने क्या सीखा, इसकी सीख हमें पुरुषोत्तम राम के सकल जीवन से प्राप्त होती है। जब हम त्रेता युग से द्वापर युग की ओर अग्रसर हुए तो नीति-मूल्य का का स्थाई रूप से पतन दृष्टिगत होता है। भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य और कृपाचार्य जैसे गुण निधान गुरुजन दुर्योधन और अन्य कौरवों को सन्मार्ग पर नहीं ला सके और तो और द्रौपदी के चीरहरण के समय मूक दर्शक बनने के कारण उनके व्यक्तित्व पर लगा काला धब्बा कुरुक्षेत्र पर बहाया लहू भी धो नहीं पाया।
मैं बारम्बार सोचकर इस निष्कर्ष पर पहुँची हूँ कि, शिक्षा प्रदान करने वाले गुरुजनों की कोई अलग प्रजाति नहीं होती, बल्कि वे तो समाज की ही उपज हैं। गुरु, शिक्षक… ये बदलाव हमारे बदलते जीवनमूल्यों का ही प्रारूप है। शिक्षा दान का बहुमूल्य कार्य करनेवालों की अवनति के कुछ कारण समाज में उपजी उनके प्रति अनास्था हैं। सरकारी विद्यालयों में कार्यरत शिक्षकों की परिस्थिति विकट है। ऐसे कई उदाहरण मिलेंगे, जहाँ डॉक्टर, आईएएस, अफसर, वकील, अभियंता जैसे व्यवसाय पीढ़ी दर पीढ़ी फल-फूल रहे हैं, परन्तु अगर अभिभावक शिक्षक है तो क्या उनके बच्चे भी शिक्षक होना चाहते हैं ? मेहमानों का अक्सर एक प्रिय सवाल होता है गृहस्वामी के बच्चों को,-“बेटा, बड़े होकर क्या बनना चाहते हो ?” इसका उत्तर ‘शिक्षक’ मिलना बड़ा कठिन है।
यह अनास्था पिछली शताब्दी में शुरू हुई। उसके पहले तो बच्चों को शिक्षकों के सुपुर्द कर माँ-बाप निश्चिंत रहते थे। कितने ही बच्चे अपने शिक्षकों का अनुकरण करते हुए स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े थे। अपने शिक्षकों का आदर्श अपने समक्ष रखकर वे आदर्श छात्र होने का प्रमाण देते थे। धीरे-धीरे इस उदात्त व्यवसाय का व्यापारीकरण होने लगा, जब शिक्षकों के दिए हुए आदर्श विचारों पर समाज का दंभाचार और पाश्चात्य संस्कृति में बसा उपभोगवाद भारी पड़ने लगा। शिक्षकों के प्रति अविश्वास का वातावरण तैयार होने लगा। आदर्श विचारों की गठरी विद्यालय-महाविद्यालयों में छोड़ अब आधुनिक छात्र समाज में बढ़ती अन्य विचारधाराओं के प्रभाव में आने लगे। व्यक्ति स्वातंत्र्य का मृगजल, एकल परिवार, बढ़ती महंगाई में पिसते अभिभावक, अवसरवादी समाज सुधारक, खोखली पत्रकारिता, स्वार्थी और कुर्सीप्रेमी राजनीतिज्ञों का गहरा प्रभाव विद्यार्थियों पर पड़ने लगा।
आज की बात करूँ तो बहुत से विद्यार्थियों को शिक्षकों का दिया विद्यादान जीर्ण-शीर्ण वस्त्रों जैसा लगता है। ‘चॉक और डस्टर’ की बजाय ‘कम्प्यूटर’ पर शिक्षकों से अधिक चतुराई से छात्रों की उँगलियाँ चलने लगी हैं। ‘गूगल बाबा’ हर गुणवान शिक्षक पर हावी है। शिक्षकों की उपयोगिता केवल ‘आंतरिक मूल्यांकन’ तक सीमित रह गई है। सरकारी शिक्षकों को ‘गैर-विद्यादान’ कार्य के अंतर्गत जनगणना, टीकाकरण तथा स्वास्थ शिक्षा, चुनाव और कई अन्य लक्ष्यप्राप्य सरकारी कार्यों को प्राथमिकता दी जाती है। गैरसरकारी शालाओं में शिक्षकों की संख्या कम होती है। अधिक कार्य, पाठ्येतर कार्यक्रम, योजना और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में इन विद्यालयों की मानों होड़-सी लगी है।
शिक्षकों की इस दुरावस्था के कारणों की मीमांसा करना एक उलझन भरा कार्य है। शुरुआत नियुक्ति के समय दी हुई रिश्वत से, वह भी अस्थायी नियुक्ति के लिए, अनियमित वेतन, कदम दर कदम पर भ्रष्टाचार, राजनीति, जातिवाद एवं पक्षपात जैसे दूषित वातावरण में बेचारा शिक्षक, करे तो क्या करे ? मित्रों, उन पर और एक कुठाराघात हुआ है। कुकुरमुत्ते की तरह गली-गली में फैली निजी ट्यूशन की समानांतर शिक्षा प्रणाली! अब तो विद्यार्थी सीमोल्लंघन कर दूसरे शहर में जा बसते हैं। पुरानी ‘गुरुकुल’ परंपरा के आधुनिक रूप में शिक्षा का ‘कोटा’ पूरा करनेवाले इस ट्यूशन का टशन देखते ही बनता है। बस कभी-कभार तहखाने के पुस्तकालय में पढ़ाई में मशगूल विद्यार्थियों को जलसमाधि लेनी पड़ती है!, लेकिन इससे घबराना कैसा ? “बड़े-बड़े शहरों में ये छोटी- छोटी बातें तो होती ही रहती हैं।” इस वातावरण के विपरीत प्रभाव भी क्यों न हो! शिक्षक भी तो मुसीबत का मारा है, थोड़ा-सा पैसा यहाँ-वहाँ से जमा करना, अंतरिम मार्क की कीमत वसूलना, अपनी निजी ट्यूशन पर ज्यादा ध्यान देना, विद्यार्थियों में पक्षपात करना, अपना ज्ञान बढ़ाने के प्रयत्न न करना, जैसे भी हो, बी.एड. और एम.एड. की उपाधि लेकर नौकरी करना, अपने पेशे से अरूचि… हे ईश्वर! इसीलिए हमारे पंचतारांकित विद्यालय और विश्वविद्यालय तक अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर निचली क़तार में हैं। विद्यार्थी बड़े पैमाने पर विदेश में शिक्षा ग्रहण करने को क्यों लालायित है, इसपर सोच-विचार करना आवश्यक है।
अंत में एक शूल की तरह चुभनेवाली जहरीली बात कहनी होगी। लिंगभेद समाप्त करने के कानून को समाज ने कितना स्वीकारा (?) है, यह सूर्यप्रकाश की तरह प्रकाशमान है। उसी समाज के सड़े अंग जब शिक्षक बनते हैं, तब ये हर उम्र के ‘पुरुष’ अपनी कन्या जैसी हर उम्र की कोमल निरपराध छात्राओं के साथ अश्लीलता की सीमा लाँघ यौन अपराध करते हैं। गुरुरूपी संरक्षक दीवार ही जब छात्राओं पर टूट पड़े तो उसका केवल निषेध मात्र करने से क्या यह कीचड़ साफ़ होगा ? यहाँ ऐसे पुरुष पर घर और समाज ने दिए संस्कारों पर बड़ा प्रश्नचिन्ह अंकित हो जाता है। इसका हल निकालना हो तो शिक्षा व्यवस्था में सुधार लाना होगा। ‘बीज और भूमि’ दोनों पर उचित संस्कार जरूरी है। गुणवान बालक की उपज संस्कारित घरों में होती है, अच्छा नीतिमान व्यक्ति उत्तम परिवार, भले समाज और नीतिमान शिक्षा संस्थाओं का अभिन्न अंग होता है। हर व्यक्ति को अपना दायित्व समझना होगा कि नीति मूल्यों पर आधारित सर्वांगीण शिक्षा पर बालकों और युवाओं का मूलभूत अधिकार है। उनकी उपलब्धि करवाना हम नागरिकों का परम कर्त्तव्य है। हम चाहें अभिभावक हों या छात्र, आज ‘शिक्षक दिवस’ पर यह प्रण करें कि, आदर्श शिक्षकों का सम्मान केवल शिक्षक दिन को ही नहीं, बल्कि हर कदम पर करेंगे और शिक्षा को शीर्ष स्थान पर पहुँचाने के लिए हर संभव प्रयत्न करेंगे। तभी तो हम संत कबीर की इस उक्ति का वास्तविक अर्थ समझ पाएंगे-
“गुरु गोविंद दोनों खड़े, काके लागूं पाँय।
बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय॥”