सरोजिनी चौधरी
जबलपुर (मध्यप्रदेश)
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बीता प्रभात मध्याह्न भी बीता,
संध्या की बेला आयी
भगवन मेरे राह देखती,
पूजा की थाली लायी।
राहगीर एक-एक कर आते,
फूल वो सारे ले जाते
मैं लज्जा से शीश झुकाये,
व्यंग्य से वे मुस्का जाते।
मैं चुपचाप खड़ी वहाँ पर,
हाय न इतना कह पायी
लिए लालसा दर्शन की मैं,
कहते हुए लाज है आयी।
इतने में मैंने देखा यह,
दीप सभी जगमगा उठे
स्वर्ण-ध्वजा फहराते रथ से,
उतरे तुम खिलखिला उठे।
पृथ्वी से था मुझे उठाया,
रथ में अपने बिठा लिया
दुनिया के सारे वैभव का,
सुख मुझमें था समा गया।
हुए अचंभित लोग देखते,
बढ़ा था रथ धीरे अपना।
आँख खुली तो मैंने पाया,
देख रही थी मैं सपना॥