बबीता प्रजापति
झाँसी (उत्तरप्रदेश)
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गगन भरा हो तारों से,
और कच्चा घर का आँगन था
पेड़ों से झाँकता था चंदा,
कुछ ऐसा पहले बचपन था।
हवा चलती थी ठंडी,
तब न ए.सी.-कूलर था
एक पेड़ लगा था फूलों का,
वो प्यारा सबका गुलमोहर था।
एक बड़ी-सी चारपाई
सब भाई-बहन जिस पर सोते थे
मिलकर हँसते-गाते थे,
एक,-दूजे के दु:ख में रोते थे।
बड़ा पतीला दाल का,
एक बड़ी हाँडी चावल की
माँ के हाथों का बना अचार,
छेवले केले की पातल थी।
तब भूख भी थी,
जायका भी था
खेतो की ताज़ी सब्जी थी,
ताजा मट्ठे का रायता भी था।
गुड्डे-गुड़िया, खेल-खिलौने,
सावन में पीहर से आते थे
करके मायके को याद,
नैना माँ के छलक जाते थे।
रंग-बिरंगे फूलों पर तितली,
उड़-उड़ के पराग चुराती थी
भौंरा उड़ता तितली संग,
पर वो झट उड़ जाती थी।
दिल बड़े थे लोगों के,
घर-आँगन भी बड़े हुआ करते थे
मोटे पीतल के छल्लों पर ज़ब,
झूले गगन छुआ करते थे।
पत्थर पर पिसा धना-मिर्च,
चटनी का स्वाद बढ़ाती थी
कुएं का मीठा ठंडा जल,
माँएं भर-भर लाती थी।
छल-कपट का नाम न था,
सब हृदय के निर्मल होते थे
आँखें देख बता देते थे दु:ख,
हृदय सबके कोमल होते थे।
सांझ की बेला घंटा-घड़ियाल,
चहुँ दिशा में गूँजते थे
मन पावन हो जाता था,
सब हृदय से रब को पूजते थे।
तीज-त्यौहार-उत्सव था तब,
प्रेम-स्नेह लुटाने का।
हर घर में अपने होते थे,
सब रिश्ते पक्के होते थे॥