धर्मेंद्र शर्मा उपाध्याय
सिरमौर (हिमाचल प्रदेश)
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जीवन जो गाँव में पला,
प्रेम प्यार सहयोग से सजा
नया-नवरा लगता था सवेरा,
जीवन सबका मुस्कान भरा।
खेल-खेल में दिन बीत जाता,
हर कोई अपना-सा लगता
एक-दूसरे को खूब रिझाते,
कभी नाराज, तो कभी हँस पड़ते।
साधन भले ही कम होते थे,
पर सब एक-दूसरे के संग होते थे
प्रेम-प्यार से सब मिलते थे,
सबको साथ लिए चलते थे।
अब गाँव वही, पहाड़-पेड़ वही,
पर लोगों में वो सुख-चैन नहीं
शहरीकरण की हवा जो आई,
जीवन गाँव का नीरस कर गई।
मतलब और चतुराई बढ़ गई,
जीने की ठुकराई बढ़ गई
दीन-दया का समय घट गया,
अपने-आपमें अपनी बढ़ाई।
गाँव में अब सड़कें हैं आई,
चकाचौंध शहरों-सी छाई,
सुनसान पड़ रहे सारे घर-वार,
देख मन में है निराशा छाई।
सोच भले ही नई रखो तुम,
पर जीवन वह पुराना ही भला
गैर उसमें लगता ना कोई,
रूठे को भी लेते थे मना।
सुख में हँसी-मजाक उड़ाते,
दु:ख में पूरा साथ निभाते।
वही पुराना गाँव है प्यारा,
जो दूसरों को भी अपना ही बताते॥