हेमराज ठाकुर
मंडी (हिमाचल प्रदेश)
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नदी में लुढ़कते रोड़े की मानिंद,
हमने लाखों-लाख खाए थपेड़े हैं
छिल-छिल टूट बिखर कर रेत ज्यों,
हुए अब तो भीतर अनुभव घनेरे हैं।
जो बचा जीवन है शेष अभी टूट जाने से,
वह लगता छूटे तट पर ज्यों चिकने रोड़े हैं
उसकी तराश से ही लगता है पता साफ-साफ,
कि इसने कितने अनुभव के ओढ़न ओढ़े हैं ?
निरंतर बहती इस जीवन नदिया ने ही तो,
क्षण-क्षण जिंदगी का अनगढ़ पत्थर धकेला है
आज यह गढ़ा हुआ सा, सधा हुआ सा लगता है,
रोड़े का सा, यह जीवन की हर लहरों से खेला है।
हाँ! खेलते हैं बच्चे इसके चिकने- चिफलेपन से,
जवां-बूढ़ों को भी तो यह रोड़ा बहुत ही फबता है।
खानी पड़ती है निरंतर ठोकरों पर ठोकरें नित दिन,
यूँ ही न कोई अनगढ़ पत्थर इतना सुंदर सजता है॥