डॉ. संजीदा खानम ‘शाहीन’
जोधपुर (राजस्थान)
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धूप हो या छाँव हो,
पिता का अपने गाँव हो
चाहे मनुहार करे ताऊ,
चाहे तंग करे दाऊ।
बच्चे तो बच्चे होते हैं,
वो मन के सच्चे होते हैं
बुजुर्गों का दुलार हो,
माँ-बाप का प्यार हो।
सिर पर सबका हाथ हो,
भाई-बहनों का साथ हो
आँखों में जैसे सपना है,
सब कुछ लगता अपना है।
वीरान है जीवन बड़ों बिना,
सुनसान है बचपन बड़ों बिना
बरगद समान पिता का साया,
प्यार-दुलार सब उनसे पाया।
जब मिल जाए बड़ों का संग,
ये दुनिया और दुनिया के रंग
फीके और बेजान नहीं हैं,
खुशियों से अनजान नहीं हैं।
दादा में बसती बच्चों की जान,
दादा बच्चों के सुख की खान
बच्चे होते हैं घर की शान,
बिन बच्चों के घर वीरान।
छत जैसा है पिता का साया,
बच्चों को खिलाया खुद न खाया
मेहनत करते दुनिया से लड़ते,
बच्चों के लिए जीते हैं मरते।
सर्दी-गर्मी से नहीं हैं डरते,
बच्चों की जरूरत पूरी करते।
मासूम ही बच्चे होते हैं,
‘शाहीन’ वो सच्चे होते हैं॥