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नया सेतु

सरोजिनी चौधरी
जबलपुर (मध्यप्रदेश)
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बावरा ये मन जैसे उड़ती पतंग,
घूमती मैं फिरती हूँ हो के मलंग
रोको पतंग, कहीं उलझ न जाए,
खींच ज़रा डोर उसे राह पे लाएँ।

हौले से धीरे-धीरे खींचना ये डोर,
नाज़ुक है मन खोजें ममता का छोर
अचरा के छाँव तले ममता और प्यार,
मिलता है सारा सुख, सारा दुलार।

कहाँ मैं सुनाऊँ दुख-दर्द ग़म की मार,
किससे कहूँ जो चुभा बन के नासूर
मात-पिता भ्रात सखा सबसे मैं दूर,
चली आयी हूँ विदेश किया ये क़ुसूर।

सीख बड़ी मिली मुझे करूँगी न भूल,
देश में ही होता है अपनों का मूल।
लौट अपने देश करूँ काम देश हेतु,
इससे ही बाँध सकेंगे हम नया सेतु॥