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मेरी माँ हिंदी

ऋचा गिरि
दिल्ली
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नम चक्षु, तिमिर का जाल,
दरवाजे पर दस्तक हुई
थरथराते हाथों से कुंडी खोली,
सामने वह खड़ी दिव्य रोशनी के साथ
मनोभावों से मेरे दोनों हाथ जुड़ गए।

इस मुलाक़ात के बाद,
मैं अधीन होती चली गई
उसने ‘कुछ’ नहीं दिया,
उसने बहुत कुछ दिया।

और सिखा दिया,
अर्जित करना
मैं इसकी हो गई,
और ये उन सबकी
जो आए इसकी शरण में।

कहीं भी जाती हूँ,
इसके साथ जाती हूँ
इसकी दिव्य रोशनी लिए,
यह मेरा कवच है
इसका प्रवाह है मेरे अंदर,
उंगलियों का स्पंदन इसी से।

जब मेरी धड़कन निस्पंद हो जाएगी,
जब मेरा नश्वर शरीर
पंच तत्वों में विलीन हो जाएगा,
इसकी अमरता मुझे अमर रखेगी।
हिंदी,
मेरी माँ हिंदी॥