डॉ. मीना श्रीवास्तव
ठाणे (महाराष्ट्र)
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नारी से नारायणी (महिला दिवस विशेष)…
“यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाःक्रियाः॥”
(अर्थ-“जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है, वहाँ देवता आनंदपूर्वक निवास करते हैं और जहाँ स्त्रियों की पूजा नहीं होती, उनका सम्मान नहीं होता, वहाँ किए गए समस्त अच्छे कर्म भी निष्फल हो जाते हैं।) यह अर्थपूर्ण श्लोक कालजयी है, इसलिए आज भी उतना ही प्रासंगिक है। यह बात सभी पर लागू होती है, क्योंकि आज की तारीख में जहाँ महिलाएँ प्रथा के अनुसार पुरुषों का चोगा पहने काम बेझिझक करती हैं, वहीं दूसरी ओर महिलाओं के पारंपरिक काम कभी-कभी पुरुष भी करते हैं (सबूत के तौर पर मास्टर शेफ हैं)।
प्रिय मित्रों, अमरीका और यूरोप सहित लगभग सम्पूर्ण विश्व में महिलाओं को २० वीं सदी की शुरूआत तक मत देने के अधिकार से वंचित रखा गया था। १९०७ में पहला अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी महिला सम्मेलन स्टटगार्ट में आयोजित किया गया था। ८ मार्च (१९०८) के दिन न्यूयॉर्क में वस्त्रोद्योग की हजारों महिला मजदूरों की भारी भीड़ ने रुटगर्स चौक में इकठ्ठा होते हुए विशाल प्रदर्शन किए। इसमें एक कम्युनिस्ट कार्यकर्ता क्लारा जेटकिन ने ”सार्वभौमिक मताधिकार के लिए लड़ना समाजवादी महिलाओं का कर्तव्य है” यह घोषणा की। इसमें १० घंटे का दिन और कार्यस्थल पर सुरक्षा, साथ ही लिंग, वर्ण, संपत्ति और शिक्षा की समानता और सभी वयस्क पुरुषों और महिलाओं के लिए मत देने का अधिकार ये मुद्दे भी शामिल थे। १९१० में कोपेनहेगन में दूसरे अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी महिला सम्मेलन में क्लारा ने ८ मार्च (१९०८) को अमेरिका में महिला श्रमिकों की ऐतिहासिक उपलब्धियों की स्मृति में ८ मार्च को ‘अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस’ के रूप में अपनाने का प्रस्ताव रखा और विधिवत मंजूर हो गया। परिणामस्वरूप १९१८ में इंग्लैंड में और १९१९ में अमेरिका में ये मांगें सफल रहीं। भारत में पहला महिला दिवस ८ मार्च १९४३ को मुंबई में मनाया गया था। इसके पश्चात् वर्ष १९७५ को यूनो द्वारा ‘अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष” घोषित किया गया। इस कारण महिलाओं की समस्याएँ प्रमुखता से समाज के सामने आतीं गई।बदलती पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों के अनुसार जैसे-जैसे कुछ प्रश्नों का स्वरूप बदलता गया, वैसे-वैसे महिला संगठनों की माँगें भी बदलती गईं।
महिला सशक्तिकरण की एक स्मृति साझा कर रही हूँ-यात्रा करते समय बड़ी ही जिज्ञासा से यह देखती रहती थी कि, वहाँ की महिलाएँ किस प्रकार आचरण करती हैं और उनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता कितनी विकसित है। यह २००३ के आसपास की बात है। मैं केरल में घूमने निकली थी। मनभावन हरियाली के बीच देवभूमि का यह खूबसूरत सफ़र चल रहा था। बस कंडक्टर एक लड़की थी, मुझे लगा कि वह लगभग २० साल की होगी। वह बेहद आत्मविश्वास के साथ अपना काम कर रही थी। बस में अग्रिम २-३ बेंच केवल महिलाओं के लिए आरक्षित थीं। उन पर वैसा निर्देश साफ लिखा था। उन्हीं पर कुछ युवक बैठे हुए थे। एक ठहराव पर कुछ महिलाएँ बस में चढ़ीं। नियमानुसार युवकों को उन आरक्षित सीटों को छोड़ देना चाहिए था, पर वैसा नहीं किया। औरतें तब खड़ी ही थीं। तभी वह कंडक्टर आई और युवाओं से मलयालम भाषा में सीटें खाली करने को कहने लगी, लेकिन युवक हँसते जा रहे थे और वैसे ही बैठे रहे। अब मैंने देखा कि, वह दुबली-पतली लड़की गुस्से से लाल हो गई। उसने उनमें से १ का कॉलर पकड़ लिया और उसे खड़े होने के लिए मजबूर किया। बाकी अपने-आप उठ खड़े हुए। उसने विनम्रता से महिलाओं को बेंच पर बिठाया और अपने काम में लग गई, जैसे कुछ हुआ ही न हो।
मित्रों, मुझे हमारे ‘जय महाराष्ट्र’ का स्मरण हुआ। ऐसे मौके पर यहाँ क्या होता ? केरल की साक्षरता का दर १०० प्रतिशत है (तब भी और अब भी)। मैंने २०२२ में मेघालय का सफर किया। वहाँ की प्रमुख बात जिसने मुझे प्रभावित किया, वह थी महिलाओं की स्वतंत्रता, जो हर जगह दिखाई दे रही थी। वहाँ भी नारी स्वतंत्रता के सूर्य का उदय, महिलाओं की पूर्ण साक्षरता और मातृसत्तात्मक व्यवस्था के कारण स्त्री को प्राप्त आर्थिक समृद्धि! इसके परिणामस्वरूप मुझे वहाँ पग-पग और पल-पल नारी शक्ति के अद्भुत रूप का अनुभव हुआ।
इसमें कोई शक नहीं कि, मत देने का अधिकार महत्वपूर्ण है, लेकिन क्या हम मान लें कि, महिलाएं स्वतंत्र हो गई हैं ? यह ऐसा अधिकार है जो हर ५ साल में दिया जाता है। क्या एक महिला को घर में अपनी राय व्यक्त करने का अधिकार है ? खैर, अगर वह व्यक्त भी करे तो क्या उस पर विचार किया जाता है ? इस मुद्दे पर भी सोच-विचार करना होगा न! छोटी-सी बात, अगर वह साड़ी खरीदना चाहती है तो क्या उसे उतनी भी आर्थिक आजादी है ? अगर है भी तो क्या वह अपनी मनपसंद साड़ी चुन सकती है ? प्रश्न तो सरल हैं, पर क्या उनके उत्तर उतने ही सरल हैं ? ‘हे स्त्री के जन्म! तुम्हारी इतनी ही कहानी है, हृदय में अमृत और नैनों में पानी’, ये शब्द आज भी क्यों जीवित हैं ?जहाँ एक स्त्री को देवी के रूप में पूजा जाता है, वहाँ उसकी ऐसी स्थिति क्यों होनी चाहिए ?
इस वर्ष का महिला दिवस विश्व स्तर पर ‘कार्रवाई में तेजी लाएँ’ घोष वाक्य के तहत मनाया जा रहा है। इसका उद्देश्य लैंगिक समानता प्राप्त करने, प्रगति की धीमी गति पर विशेष जोर देने और समस्त विश्व में स्त्रियों एवं लड़कियों को सशक्त बनाने की दिशा में निर्णायक कदम उठाने की अति शीघ्र आवश्यकता पर जोर देता है। इसका अर्थ यह हुआ कि, स्त्रियाँ हर क्षेत्र में पुरुषों के साथ कदम से कदम मिला कर चलने में जल्द से जल्द सक्षम हों। यहाँ महज चर्चा करने की बजाय हर परिस्थिति में महिलाओं के अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए प्रभावी कदम उठाने की जरूरत है। इसके तहत महिलाओं के लिए विशिष्ट योजनाएं लागू करनी होंगी, ताकि महिलाओं को रोजगार और निर्णय लेने की क्षमता मिल सके। इसमें ‘लाड़ली बहना’ जैसी योजना का अन्तर्भाव न हो, ऐसी मेरी अंतरिम इच्छा है। समाज में महिलाओं की दोयम स्थिति पर एक सामाजिक बहस होनी चाहिए। यद्यपि, संविधान में यह स्पष्ट है कि किसी भी स्तर पर लैंगिक भेदभाव नहीं होना चाहिए, लेकिन इस पर अमल करना समाज के हर व्यक्ति का कर्तव्य है।
इस दिन के बारे में बस यही महसूस करती हूँ कि, एक महिला को न ही देवी के रूप में पूजा जाए और न ही उसे ‘पाँवों में पड़ी दासी’ बनाया जाए। उसे समाज में पुरुष के समान सम्मान मिलना चाहिए। जो महिला अपना पूरा जीवन ‘चूल्हा-चौका और बच्चों’ की सेवा में बिता देती है, उसकी पारिवारिक और सामाजिक स्थिति सर्वमान्य होनी चाहिए। उसकी भावनाओं, बुद्धि और विचारों का सदैव सम्मान किया जाना चाहिए। वास्तव में इस उद्दिष्ट को प्राप्त करने के लिए ८ मार्च का ‘प्राण-प्रतिष्ठा का दिवस’ नहीं होना चाहिए, बल्कि सभी महिलाओं को इसे साध्य करने हेतु ‘हर एक दिन मेरा है’ यह मान लेना चाहिए। इसके लिए पुरुष मंडली से ‘अनापत्ति प्रमाण-पत्र’ लेने की आवश्यकता क्यों पड़े ? ऐसा सुमंगल, सुचारु और स्वस्थ दिन कब आएगा ? प्रतीक्षा करें, जल्द ही यह स्वप्न साकार होगा, क्योंकि
हिलेरी क्लिंटन के अनुसार-
“मानवाधिकार महिलाओं के अधिकार हैं, और महिलाओं के अधिकार मानव अधिकार हैं।”