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सोच रही हूँ बेहिसाब लिखूं

ऋचा गिरि
दिल्ली
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सोच रही हूँ एक किताब लिखूं,
अपने अरमानों को बेहिसाब लिखूं।

एक के बाद एक पन्नों को पलट,
पिरोए सपनों को नायाब लिखूं।

जो पढ कर नशा-सा हो जाए,
कुछ ऐसी ही शराब लिखूं।

बेचैन झपकती पलकों के,
सुकून भरे ख्वाब लिखूं।

चाँदनी बिखेरती रात में,
जगमगाता आफताब लिखूं।

पतझर की तन्हा डालियों से,
झूमता हुआ शादाब लिखूं।

ज़िंदगी के उतार-चढ़ाव में,
कुछ काँटों भरा गुलाब लिखूं।

गुनगुना दो मेरी लेखनी को,
फिर जो लिखूं, लाजवाब लिखूं॥