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प्लास्टिक व माइक्रोप्लास्टिक गंभीर खतरे की घंटी

ललित गर्ग

दिल्ली
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प्रकृति को पस्त करने, वायु एवं जल प्रदूषण, कृषि फसलों पर घातक प्रभाव, मानव जीवन एवं जीव-जन्तुओं के लिए जानलेवा साबित होने के कारण समूची दुनिया में बढ़ते प्लास्टिक एवं माइक्रोप्लास्टिक के कण बड़ी चुनौती एवं संकट है। पिछले दिनों एक अध्ययन में मनुष्य के मस्तिष्क में प्लास्टिक के नैनो कणों के पहुंचने पर चिंता जताई गई थी। दावा था कि प्रतिदिन सैकड़ों माइक्रोप्लास्टिक कण साँसों के जरिए हमारे शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। ऐसे तमाम नए राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय शोध-सर्वेक्षण-अध्ययन चेतावनी दे रहे हैं कि हमारी साँसों, पेयजल व फसलों में घातक माइक्रोप्लास्टिक की मौजूदगी एक गंभीर संकट है। विश्व की कई शोध पत्रिकाओं में छपे शोध-लेख समय-समय पर विभिन्न अध्ययनों के चेताने वाले निष्कर्ष प्रकाशित करते रहते हैं। संकट तो यहाँ तक है कि प्लास्टिक के कण पौधों की प्रकाश संश्लेषण प्रक्रिया को प्रभावित करने लगे हैं, जिससे खाद्य श्रृंखला में शामिल कई खाद्यान्नों की उत्पादकता में गिरावट आ रही है। ऐसा निष्कर्ष अमेरिका-जर्मनी समेत कई देशों के साझे अध्ययन के बाद सामने आया है।
दरअसल, प्लास्टिक कणों के हस्तक्षेप के चलते पौधों के भोजन सृजन की प्रक्रिया बाधित हो रही है। इस तरह माइक्रोप्लास्टिक का दखल भोजन, हवा व पानी में होना न केवल प्रकृति, कृषि, पर्यावरण वरन मानव अस्तित्व के लिए गंभीर खतरे की घंटी ही है, जिसे बेहद गंभीरता से लिया जाना चाहिए और सरकारों को इस संकट से मुक्ति की दिशाएं उद्घाटित करने के लिए योजनाएं बनानी चाहिए।
माइक्रोप्लास्टिक और प्लास्टिक की बहुलता एवं निर्भरता के कारण मौत हमारे सामने मंडरा रही है। हम चाहकर भी प्लास्टिकमुक्त जीवन की कल्पना नहीं कर पा रहे हैं, क्योंकि माइक्रोप्लास्टिक जीवन में है, हवा में है, पानी में है, नदी में है, समुद्र में है, बारिश में है, और इन सबके चलते वे हमारे भोजन में भी हैं। हम मनुष्यों, पशुओं और शायद सभी प्राणियों के जीवन में भी हैं। लगातार दूषित होते जल और प्लास्टिक प्रदूषण के खतरों को देखते हुए सरकार ने ठान लिया है कि भारत में एकल उपयोगी प्लास्टिक के लिए कोई जगह नहीं होगी। प्लास्टिक के कारण देश ही नहीं, दुनिया में विभिन्न तरह की समस्याएं पैदा हो रही हैं। इसके सीधे खतरे २ तरह के हैं। एक तो प्लास्टिक में ऐसे बहुत से रसायन होते हैं, जो कैंसर का कारण माने जाते हैं। इसके अलावा शरीर में ऐसी चीज जा रही है, जिसे हजम करने के लिए शरीर बना ही नहीं है, यह भी कई तरह से सेहत की जटिलताएं पैदा कर रहा है। इसलिए आम लोगों को ही इससे मुक्ति का अभियान छेड़ना होगा।
चिंता की बात यह भी है कि विकासशील देशों में सरकारें रोटी, कपड़ा व मकान जैसी मूलभूत सुविधाओं की जुगाड़ में लगे रहने और गरीबी की समस्या से जूझते हुए स्वास्थ्य के उन उच्च गुणवत्ता मानकों को वरीयता नहीं दे पाती, जो अंतर्राष्ट्रीय मापदंडों के अनुरूप हों।
शोधकर्ताओं ने केरल में १० प्रमुख ब्रांड के बोतलबंद पानी को अध्ययन का विषय बनाया है। निष्कर्ष है कि प्लास्टिक की बोतल के पानी का इस्तेमाल करने वाले व्यक्ति के शरीर में प्रतिवर्ष १५३ हजार प्लास्टिक कण प्रवेश कर जाते हैं। निश्चय ही यह चिंता का विषय है। हालांकि, सर्वेक्षण के लिए केरल को ही चुनना और बोतलबंद पानी बेचने वाली भारतीय कंपनियों को चुनने को लेकर कई सवाल पैदा हो सकते हैं। अब जब हम न तो इसका विकल्प तलाश पा रहे हैं, और न इसका उपयोग ही रोक पा रहे हैं, तो क्यों न इसे विज्ञान और मानव सभ्यता की सबसे बड़ी असफलता एवं त्रासदी मान लिया जाए ?
वैज्ञानिकों ने पाया है कि प्लास्टिक हम सबके शरीर मेें किसी-न-किसी के रूप में पहुंच रहा है। इसे जानने के लिए अमेरिका के जियोलॉजिकल सर्वे ने यहाँ बारिश के पानी के नमूने जमा किए। जब इस पानी का विश्लेषण हुआ, तो पता चला कि लगभग ९० फीसदी नमूनों में प्लास्टिक के बारीक कण या रेशे थे, जिन्हें माइक्रोप्लास्टिक कहा जाता है। ये इतने सूक्ष्म होते हैं कि हम इन्हें आँखों से नहीं देख पाते। देखने में आ रहा है कि कथित आधुनिक समाज एवं विकास का प्रारूप अपने को कालजयी मानने की गफलत पाले हुए है और उसकी भारी कीमत माइक्रोप्लास्टिक के कहर के रूप में चुका रहा है। लगातार पाँव पसार रही माइक्रोप्लास्टिक की तबाही इंसानी गफलत को उजागर तो करती रही है, लेकिन समाधान का कोई रास्ता प्रस्तुत नहीं कर पाई। ऐसे में अगर मोदी सरकार ने कुछ ठानी है तो उसका स्वागत होना ही चाहिए।
पूरी दुनिया के लिए यह एक ऐसी समस्या बनकर उभर रही है, जिससे निपटना अब भी दुनिया के ज्यादातर देशों के लिए एक बड़ी चुनौती है।
कुछ समय पहले कनाडाई वैज्ञानिकों द्वारा माइक्रोप्लास्टिक कणों पर किए गए विश्लेषण में पता चला है कि एक वयस्क पुरुष प्रतिवर्ष लगभग ५२ हजार माइक्रोप्लास्टिक कण केवल पानी और भोजन के साथ निगल रहा है। इसमें अगर वायु प्रदूषण को भी मिला दें तो हर साल करीब १,२१ हजार माइक्रोप्लास्टिक कण एक वयस्क पुरुष के शरीर में जा रहे हैं। दरअसल, अंतर्राष्ट्रीय बाजार में बोतलबंद पानी बेचने का बड़ा प्रतिस्पर्धी कारोबार है। आम आदमी के मन में सवाल उठ सकते हैं, कि कहीं भारतीय बोतलबंद पेय बाजार को तो निशाने पर नहीं लिया जा रहा है। दुनिया के बड़े कारोबारी देश भारत के बड़े उपभोक्ता बाजार पर ललचाई दृष्टि रखते हैं। इसके बावजूद मुद्दा गंभीर है और हमारी सरकारों को अपने स्तर पर गंभीर जांच-पड़ताल करनी चाहिए।
अमेजन एवं फ्लिपकार्ट जैसे
आनलाइन व्यवसायी प्रतिदिन ७ हजार किलो प्लास्टिक पैकेजिंग बैग का उपयोग करते हैं। सरकारों के पास किसी भी नियम या अभियान को अमल में लाने के लिए सारे संसाधन उपलब्ध हैं, तो इनको भी प्लास्टिकमुक्त घेरे में लेने के लिए कठोर कदम उठाने चाहिए। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि देश में एकल उपयोगी प्लास्टिक के प्रयोग पर प्रतिबंध के बावजूद खुलेआम बिक क्यों रहा है ? दुकानदारों व उपभोक्ताओं को तो इसके उपयोग पर दंडित करने का प्रावधान है, लेकिन ऐसा प्लास्टिक उत्पादित करने वाले उद्योगों पर प्रतिबंध क्यों नहीं लगाया जाता ?
संकट का एक पहलू यह भी है कि लोग सुविधा को प्राथमिकता देते हैं, लेकिन दूरगामी घातक प्रभावों को लेकर आँख मूंद लेते हैं। यह संकट हमारी जिम्मेदार नागरिक के रूप में भूमिका की जरूरत भी बताता है।