राधा गोयल
नई दिल्ली
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रफ्ता-रफ्ता ज़िंदगी की राह पर चलता रहा,
हर कदम पर मेरा अपना ही मुझे छलता रहा।
किससे करने जाएँ शिकायत, कौन सुनेगा मेरी ?
जब मेरे अपनों ने, इज्जत तार-तार की मेरी।
सब हो गए पराए, समझा था जिनको अपना,
जो स्वप्न देखता था, वो बन गया है सपना।
इज्जत की धज्जियों को, थामा था बहुत मैंने,
कैसे कहूँ किसी से, लब सी लिए हैं मैंने।
दिल में है दर्द इतना, सहता ही जा रहा हूँ,
आँखों से बहते आँसू, पीता ही जा रहा हूँ।
बेजार हो गया हूँ, इस ज़िंदगी से अब,
अरमान धूल-धूसर, सब हो गए हैं अब॥