हेमराज ठाकुर
मंडी (हिमाचल प्रदेश)
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मेरी रूह रोती है कांप-कांप कर,
देख के पर्यावरण का नुकसान
चिन्ता लगी है मन में इक भरी कि,
हो न जाए कहीं यह धरती श्मशान।
दया आती है तेरी करनी पर,
तू कर क्या रहा है ओ इंसान ?
सृष्टि रचाने वाले से डर जरा,
तू क्यों बना है खुद भगवान… ?
नदियाँ नाला हो रही है,
पर्वत हो रहे हैं मैदान
जंगल हो रहे हैं वन विहीन सारे,
बंजर हो रहे हैं हर खेत-खलियान।
दया आती है तेरी करनी पर,
तू कर क्या रहा है ओ इंसान… ?
चारों ओर है शोर ही शोर बस,
शांति के लिए ना है कोई स्थान
कांक्रीट के जंगल को देख बोले वन प्राणी,
बता हम कहाँ जाएँ ओ पागल इंसान ?
दया आती है तेरी करनी पर
तू कर क्या रहा है ओ इन्सान…?
मौसम के भी मिजाज हैं बिगड़े,
कहीं सूखा तो कहीं आँधी-तूफान
प्रदूषण के कहर से कुदरत है रोती,
क्यों बढ़ रहा है धरती का तापमान ?
दया आती है तेरी करनी पर,
तू कर क्या रहा है ओ इंसान…?