सीमा जैन ‘निसर्ग’
खड़गपुर (प.बंगाल)
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सतहों पर खामोशी है
पर मन में कितना शोर है,
चुप-चुप सी लगती दीवारें…
अंदर की बात और है।
कहने को व्याकुल-सी खटिया
करती चरमर दिन-रात है,
आजू-बाजू से निकल रहे…
पर फुरसत किसके पास है ?
कुछ प्यार छिपाया बूँदों में
अब बरसने को बेताब है,
धरती की पनाह में जाने को…
न जाने क्यूँ बेकरार है।
खुशियों बिन उठता कोलाहल
रीते मन को खा जाता है,
क्यूँ कस्तूरी खोजने विकल…
मृग दर-दर भटका जाता है।
ये कैसी चाह है जीने की ?
हर गम पर भारी पड़ जाती,
सब ओर मिल रहे धोखे पर…
ज़िंदगी सबसे जीत जाती।
जाने सहरा कब आएगी ?
ये ज़िंदगी कटती जाएगी,
बरस जी लिए सौ-सौ लेकिन…
क्या याद यहीं रह जाएंगी ?