पूनम चतुर्वेदी
लखनऊ (उत्तरप्रदेश)
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भारतीय संविधान का प्रस्तावना वाक्य-“हम भारत के लोग…” – न केवल इस देश की संप्रभुता और लोकतंत्र का परिचायक है, बल्कि यह उस जनभावना की पुष्टि करता है, जो भारत को उसकी विविध भाषाओं और संस्कृतियों के माध्यम से जीवंत बनाती है। इस विशाल बहुभाषिक राष्ट्र में जहाँ सैकड़ों भाषाएँ और बोलियाँ बोली जाती हैं, वहाँ यह प्रश्न अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाता है कि क्या भारत का न्याय तंत्र आज भी जनमानस की भाषा से जुड़ा है ? आज भी देश के अधिकतर न्यायालयों में निर्णयों की भाषा अंग्रेजी है, जो केवल एक सीमित तबके की भाषा है। बहुसंख्यक भारतीय आज भी निर्णय की पंक्तियाँ पढ़कर उस पर मौन रहते हैं, क्योंकि वे उसकी भाषा समझ नहीं पाते। यह स्थिति न केवल भाषिक अन्याय को दर्शाती है, बल्कि भारतीय लोकतंत्र की आत्मा-समावेशन-पर एक गहरी चोट भी है।
यह तथ्य चौंकाता है कि संविधान की आठवीं अनुसूची में सम्मिलित २२ भाषाओं को ‘राजभाषा’ का दर्जा प्राप्त है, किंतु जब बात न्याय की आती है, तो यह अधिकार शिथिल हो जाता है। संविधान के अनुच्छेद ३४८(२) में स्पष्ट प्रावधान है कि उच्च न्यायालयों में राज्य सरकार राष्ट्रपति की सहमति से अपनी भाषा का प्रयोग कर सकती है, किंतु अब तक केवल कुछ राज्यों ने इस दिशा में आंशिक कदम उठाए हैं। सवाल यह है कि जब प्रशासन, शिक्षा, विज्ञान और पत्रकारिता की भाषा अब भारतीय भाषाओं में सहज हो चुकी है, तब न्याय जैसी मूलभूत प्रणाली क्यों अब भी उपनिवेशकालीन ढांचे में बंधी हुई है ?
◾भाषा और न्याय के बीच की दूरी-
भारत के संविधान में समानता, स्वतंत्रता और न्याय को सर्वोच्च मूल्य के रूप में स्थान प्राप्त है, लेकिन जब कोई पीड़ित व्यक्ति न्यायालय में प्रवेश करता है और अपने जीवन की सबसे गंभीर समस्या पर सुनवाई किसी ऐसी भाषा में होती है, जो उसकी समझ के बाहर है, तो क्या यह समानता और न्याय की भावना के अनुरूप है ? वास्तविकता यह है कि भाषा की बाधा न्याय की सुलभता में सबसे बड़ा अवरोध है। एक साधारण ग्रामीण व्यक्ति, जो केवल अपनी मातृभाषा जानता है, वह न्यायालय परिसर में आते ही असहाय हो जाता है। वकील से बात करने के लिए दुभाषिए की जरूरत पड़ती है, याचिका की भाषा उसे समझ नहीं आती और न्यायाधीश का निर्णय भी उसके लिए एक ‘कूटभाषा’ बना रहता है। यह स्थिति एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि करोड़ों भारतवासियों की है।
कई बार यह भी देखा गया है कि गरीब, अशिक्षित, ग्रामीण अथवा भाषिक अल्पसंख्यकों को न्याय की प्रक्रिया से इसलिए वंचित कर दिया जाता है, क्योंकि वे ‘उचित भाषा’ में अपनी बात नहीं रख पाते। यह भाषिक भेदभाव संविधान के अनुच्छेद १४ (समानता का अधिकार) का स्पष्ट उल्लंघन है। यह विरोधाभास इसलिए भी विडंबनापूर्ण है, क्योंकि संसद में अधिकांश कानून हिंदी अथवा अंग्रेजी में प्रस्तुत होते हैं, राज्य विधानसभाओं में बहुसंख्यक कार्य स्थानीय भाषाओं में होते हैं, लेकिन न्यायालयों में अभी भी अंग्रेज़ी का आधिपत्य है। यह भी उल्लेखनीय है कि तकनीकी सुलभता के इस युग में भारतीय भाषाओं में न्याय उपलब्ध कराना न तो असंभव है, न ही तकनीकी रूप से जटिल, लेकिन इच्छाशक्ति की कमी और परंपरागत संरचना के दबावों ने इसे बाधित कर रखा है। यह स्थिति जन-जागरण और जन-दबाव से ही बदलेगी।
◾संवैधानिक आधार और भाषिक न्याय की गूँज-
भारतीय संविधान को केवल एक कानूनी दस्तावेज़ मान लेना उसकी आत्मा का अपमान है। यह ग्रंथ उन लाखों-करोड़ों आवाज़ों का प्रतिनिधि है, जिनमें से अधिकांश भारतीय भाषाओं में बोलती, सोचती और महसूस करती हैं। जब संविधान निर्माताओं ने आठवीं अनुसूची के अंतर्गत १४ भाषाओं को स्थान दिया और बाद में बढ़कर २२ हो गई, तो उनका उद्देश्य यह था कि भारत की विविध भाषाएँ शासन, प्रशासन और न्याय की मुख्यधारा में हों, परंतु विडंबना यह कि इन प्रावधानों को न्यायपालिका में लागू करने की दिशा में नीतिगत और व्यवहारिक कोताही अब तक बनी हुई है।
मध्यप्रदेश, राजस्थान और पश्चिम बंगाल जैसे कुछ राज्यों ने इस दिशा में पहल भी की, लेकिन यह पहल केवल आंशिक और औपचारिक रही। सर्वोच्च न्या. अब भी अंग्रेजी के एकाधिकार से बंधा है, जबकि संविधान में ऐसा कोई स्पष्ट निषेध नहीं है कि उच्चतम न्यायालय केवल अंग्रेजी में ही कार्य करे। वास्तव में यह एक प्रशासनिक और ऐतिहासिक परंपरा बन गई है, न कि संवैधानिक बाध्यता। अनुच्छेद १४ में समानता की बात की गई है, पर जब पक्षकार को अपने ही मुकदमे का फैसला समझ में न आए, तो वह समानता की भावना कैसे महसूस करेगा ? यदि सुनवाई ऐसी भाषा में हो जिसे व्यक्ति समझ ही न पाए, तो वह जीवन के अधिकार का उपहास है।
इसी तरह अनुच्छेद ३५० यह सुनिश्चित करता है कि हर नागरिक को किसी भी सरकारी कार्य में, जिसमें न्यायिक कार्य भी शामिल हैं, अपनी भाषा में आवेदन देने का अधिकार है, लेकिन व्यवहार में अदालतों में इस अधिकार को न केवल नकारा जाता है, बल्कि ऐसी कोई प्रणाली ही नहीं विकसित की गई है। यही कारण है कि ‘न्याय अपनी भाषा में’ आंदोलन आज केवल भाषिक स्वाभिमान का नहीं, बल्कि संवैधानिक पुनर्स्मरण का आंदोलन बन गया है-एक ऐसा आंदोलन, जो संविधान के उस वास्तविक आत्म को पुनर्जीवित करने का प्रयास कर रहा है, जिसे समय और सत्ता की सुविधाओं ने कुंद कर दिया है।
◾ स्वराज्य अधूरा क्यों ?-
१९४७ में भारत को स्वतंत्रता मिली, लेकिन न्यायिक भाषा में आज भी वही उपनिवेशकालीन मानसिकता जीवित है जिसने भारत के आम नागरिक को ‘प्रशासित’ वस्तु के रूप में देखा, न कि ‘सहभागी’ के रूप में। भारतीय न्याय प्रणाली की संरचना ब्रिटिश औपनिवेशिक ढांचे पर आधारित रही है, जो स्पष्ट रूप से शासक और शासित के बीच भाषा की दीवार खड़ी करता है। अंग्रेज़ों ने भारतीयों को उनकी ही भाषा में न्याय देने की अवधारणा को अस्वीकार किया था, क्योंकि इससे सत्ता के केंद्रीकरण को खतरा होता। दुर्भाग्यवश, स्वतंत्र भारत ने इस एकतरफा भाषा नीति को उसी रूप में अपनाया और आज भी न्यायपालिका अंग्रेज़ी भाषा की ऊँची दीवार के भीतर ही कार्य कर रही है। इस स्थिति से सबसे अधिक प्रभावित वे लोग होते हैं, जो समाज के हाशिए पर हैं-अनुसूचित जातियाँ, जनजातियाँ, ग्रामीण, महिलाएँ, अशिक्षित और गरीब वर्ग-जो अपने मामलों को पूरी तरह न तो कह पाते हैं, न ही समझ पाते हैं। इसकी पीड़ा हर उस भारतीय के दिल में है, जो न्यायालय की चौखट पर अपनी मातृभाषा में रोता है। क्या यह संविधान की मूल भावना का उल्लंघन नहीं है ? क्या यह उन सपनों का हनन नहीं है, जो गांधी, आम्बेडकर, नेहरू और हजारों स्वतंत्रता सेनानियों ने देखे थे ?
आज जब देश ‘डिजिटल इंडिया’, ‘आत्मनिर्भर भारत’ और ‘विश्वगुरु’ की बात कर रहा है, तब क्या उचित है कि हमारी न्यायपालिका अब भी जनता से संवाद करने में असमर्थ हो ? भाषा केवल माध्यम नहीं, बल्कि संपर्क और समानता का सेतु है। न्यायपालिका की भाषा अगर जनता की भाषा से नहीं जुड़ती, तो वह अपनी वैधता खो देती है। भारत में भाषिक विविधता को बाधा नहीं, बल्कि लोकतंत्र की शक्ति के रूप में देखे जाने की आवश्यकता है।
◾आंदोलन जन-जागरण की नई लहर-
‘अपनी भाषा में न्याय’ आंदोलन कोई आकस्मिक प्रतिक्रिया नहीं है; यह वर्षों से दबे उस असंतोष की जन-अभिव्यक्ति है, जो अब स्पष्ट और सशक्त रूप में सामने आ रहा है। यह आंदोलन न केवल भाषिक समानता की मांग है, बल्कि न्याय को हर भारतीय की पहुँच तक लाने का संकल्प है। आंदोलन इस तथ्य को उजागर करता है कि भारत का नागरिक अब अपने अधिकारों के लिए बोलना चाहता है-और अपनी ही भाषा में। महत्वपूर्ण यह भी है कि आंदोलन केवल हिंदी या किसी एक भाषा की बात नहीं कर रहा, बल्कि सभी २२ संवैधानिक भाषाओं के लिए न्याय की मांग कर रहा है। स्वतंत्रता के ७७ वर्ष बाद भी अगर नागरिक अपनी ही अदालत में न्याय की भाषा को समझने से वंचित है, तो इसका अर्थ है कि स्वतंत्रता केवल औपचारिक रह गई है, वह व्यक्ति की चेतना तक नहीं पहुँची है। किसी भी राष्ट्र की न्यायपालिका तब तक पूर्ण नहीं मानी जा सकती, जब तक उसकी भाषा उसके नागरिकों की भाषा न हो।
अब समय आ गया है कि इस बहस को केवल भाषाई रेखाओं के पार ले जाया जाए। यह कोई ‘हिंदी बनाम अंग्रेज़ी’ या ‘एक भाषा बनाम बहुभाषा’ की संकीर्ण चर्चा नहीं है, उन करोड़ों भारतवासियों के मौलिक अधिकारों की बात है, जो संविधान द्वारा प्रदत्त तो हैं, पर व्यवहार में अनुपलब्ध हैं। यह पूरे भारतवर्ष की मांग है कि उन्हें उनकी भाषा में न्याय मिले।
यह भी ज़रूरी है कि न्यायपालिका यह माने, कि भाषा केवल औजार नहीं है-यह सामाजिक न्याय का माध्यम है। जिस प्रकार आरक्षण केवल नौकरी का अवसर नहीं, बल्कि सामाजिक बराबरी का यंत्र है;उसी प्रकार अपनी भाषा में न्याय, केवल सुविधा नहीं, बल्कि गरिमा की पुनर्स्थापना है।
अब प्रश्न यह नहीं कि “क्या अपनी भाषा में न्याय संभव है ?”, बल्कि प्रश्न है-“कब और क्यों यह अभी तक लागू नहीं हुआ ?” यदि भाषाएँ संसद में बोली जा सकती हैं, यदि प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति कई भाषाओं में देश को संबोधित कर सकते हैं, यदि सर्वोच्च न्या. अपने फैसलों को अब वेबसाइट पर हिंदी, तमिल, गुजराती आदि में डालना शुरू कर चुका है, तो फिर मूल सुनवाई और आदेश उसी भाषा में क्यों नहीं?
यह संविधान के अनुच्छेदों को केवल दस्तावेज़ से जीवंत यथार्थ में बदलने का प्रयास है। इसलिए-अब और नहीं इंतज़ार! हमें चाहिए न्याय-अपनी भाषा में। संविधान की आत्मा को बचाना है, तो न्याय को लोगों की भाषा में लाना ही होगा। यही लोकतंत्र की असली विजय होगी।