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स्मृतियों में हम-तुम

डॉ. विद्या ‘सौम्य’
प्रयागराज (उत्तर प्रदेश)
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चलो…
एक बार फिर स्मृतियों में,
हम तुम खो जाते हैं
जी लेते हैं, वो पल और लम्हें,
कर लेते हैं, फिर से कुछ बातें
जो अधूरी रह गई थी कुछ ख्वाहिशें,
जज़्बात, जो धुल गए थे
तेरे-मेरे अश्रु से,
मिट गई थी जो लकीरें
तेरी-मेरी हथेलियों से,
फिर से खींचते हैं, और सींचते हैं
उन सूखे पेड़ों को जिस पर
लिख कर मिटाया करते थे,
अपने नाम…।

डालते हैं उन डालियों पर,
फिर से सावन के झूले
जिनके हिलोरों से,
मन का मन से सहज ही
आलिंगन हो जाता था,
और…
भ्रमण कर लेते हैं,
उस गली, नगर और सड़कों का
जिसकी चकाचौंध में बस,
हम-तुम ही, खुद को नज़र आते थे
और…
याद कर लेते हैं, मेरे हाथ के,
बने भोजन जिसमें-
मेरा प्रेम ही नहीं, पूरा समर्पण भी,
स्वाद बन तुझे तृप्त कर जाता था,
और…
बिन खाए ही, मैं भी मुग्ध हो,
तुझे निहारती, तुझमें खो जाती।

कितना सरल और सहज,
लगता था जीवन
जब मेरे आँसुओं को,
तुम अपनी अंजुली में भर,
हृदय से लगा कर, निशब्द कर जाते थे।
आओ…
एक बार फिर, स्मृतियों में,
हम-तुम खो जाते हैं…॥