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जहर घोलता अकेलापन, फिर से इंसान बनें

ललित गर्ग

दिल्ली
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“हर छठा व्यक्ति अकेला है”-यह निष्कर्ष विश्व स्वास्थ्य संगठन की ताज़ा रिपोर्ट का है, जिसने पूरी दुनिया को चिन्ता में डाला है एवं सोचने पर मजबूर कर दिया है कि आखिर हम कैसी समाज-संरचना कर रहे हैं, जो इंसान को अकेला बना रही है। निश्चित ही बढ़ता अकेलापन कोई साधारण सामाजिक, पारिवारिक एवं व्यक्तिगत समस्या नहीं, बल्कि एक ऐसा वैश्विक मानसिक स्वास्थ्य संकट बनता जा रहा है, जो व्यक्तियों, समाजों और व्यावसायिक संस्थानों को अंदर ही अंदर खोखला कर रहा है। दुनिया के करोड़ों लोग टूटे रिश्तों व संवादहीनता की स्थितियों में नितांत खामोशी का जीवन जी रहे हैं। गौर करें तो इंसान के भीतर की ये खामोशी लाखों ज़िंदगी में महामारी के रूप में जहर घोल रही है। विडम्बना यह है कि इस संकट के सबसे ज्यादा शिकार युवा हो रहे हैं। निश्चय ही जीवन की विसंगतियां एवं विषमताएं बढ़ी हैं। कई तरह की चुनौतियाँ सामने हैं। रिपोर्ट बताती है कि दुनिया की लगभग १६ प्रतिशत आबादी आज किसी न किसी रूप में अकेलेपन, सामाजिक अलगाव या भावनात्मक दूरी का शिकार है। यह स्थिति युवाओं, कामकाजी पेशेवर और बच्चों तक भी फैल चुकी है। डिजिटल युग में जहां सब कुछ ‘जुड़ा’ लगता है, वहीं इंसानी रिश्तों में एक अदृश्य दूरी, कृत्रिमता और आत्मीयता का अभाव देखने को मिल रहा है। सामजिक संचार की आभासी दुनिया में हम जितने अधिक जुड़े हैं, उतने ही भावनात्मक रूप से अकेले हैं। व्यक्तिवादी सोच एवं रिश्तों की बिखरती दीवारों में अकेलेपन का घातक प्रभाव सामाजिक ढांचे पर गहरे रूप में पड़ रहा है। पारिवारिक दरार, विवाह में असंतोष और तलाक की बढ़ती दर इसकी साफ़ निशानी हैं। युवा पीढ़ी में अवसाद, आत्महत्या की प्रवृत्ति और नशे की ओर झुकाव एक चिंताजनक चलन बन गया है। बुज़ुर्गों में अकेलेपन से उत्पन्न मानसिक रोग तेजी से बढ़ रहे हैं।
अकेलापन केवल किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत कमजोरी नहीं है, बल्कि यह समाज की सामूहिक विफलता का संकेत है। जब हम तकनीक, दौड़ और स्वार्थ में इतने उलझ जाते हैं कि किसी के पास ‘सुनने का समय’ नहीं रहता, तब अकेलापन जन्म लेता है। अब समय आ गया है कि हम फिर से रिश्तों, संवाद और करुणा की दुनिया की ओर लौटें। अन्यथा अकेलापन, उदासी और असंतुष्टि की भावनाएँ कचोटती रहेगी। मानो खुद के होने का एहसास, कोई इच्छा ही ना बची हो। तब छोटी-छोटी चीजों में छिपी खूबसूरती नजर ही नहीं आती। ऐसा प्रतीत होता है, कि बहुत से लोग ज़िंदा हैं, पर जीवित होने के जादुई एहसास को कम ही छू पाते हैं। सोच के भौतिकवादी एवं सुविधावादी होने से आकांक्षाओं का आसमान ऊँचा हुआ है, लेकिन यथार्थ से साम्य न बैठा पाने से कुंठा, हताशा व अवसाद का विस्तार हो रहा है, जिसके चलते निराशा अकेले होने की ओर धकेल देती है। निश्चित ही सामजिक संचार का क्रांतिकारी ढंग से विस्तार हो रहा है, लेकिन हकीकत आभासी- दिखावटी है। हर कोई ऐसे मंचों पर हजारों मित्र होने का दावा करता है, लेकिन ये मित्र कितने संवेदनशील हैं ? कितने करीब हैं ? इन प्रश्नों का उत्तर नकारात्मक ही है। आभासी मित्रों का कृत्रिम संवाद हमारी ज़िंदगी के सवालों का समाधान नहीं दे सकता, अकेलापन दूर नहीं कर सकता। निश्चित रूप से कृत्रिम रिश्ते हमारे वास्तविक रिश्तों के ताने-बाने को मजबूत नहीं कर सकते।
विडंबना यह है कि हमारे संयुक्त परिवारों का बदलता स्वरूप एवं एकल परिवारों का बढ़ता प्रचलन भी इसके मूल में है। पहले घर के बड़े बुजुर्ग किसी झटके या दबाव को सहजता से झेल जाते थे। सब मिल-जुलकर आर्थिक व सामाजिक संकटों का मुकाबला कर लेते थे, पर अब बुजुर्ग एकाकीपन से जूझ रहे है। केरल में इसी तरह के वृद्ध-संकट को महसूस करते हुए वहाँ की सरकार ने वरिष्ठ नागरिक आयोग बनाया है, जो सूझ-बूझभरा कदम है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एवं सरकार अनेक स्वस्थ एवं आदर्श समाज-निर्माण की योजनाओं को आकार देने में जुटी है, उन्हें वृद्धों को अकेलेपन को लेकर भी चिन्तन करते हुए वृद्ध-कल्याण योजनाओं को लागू करना चाहिए, ताकि वृद्धों की प्रतिभा एवं अनुभवों का नये भारत-सशक्त भारत के निर्माण में समुचित उपयोग हो सके एवं आजादी के अमृतकाल में अकेलापन एक त्रासदी न बन सके।
कामकाजी परिस्थितियों का लगातार जटिल होना एवं महंगी होती जीवनशैली ने अकेलेपन के संकट को गहरा बनाया है। उन परिवारों में यह स्थिति और जटिल है, जहां पति-पत्नी दोनों कामकाजी हैं और बच्चे छात्रावासों व विद्यालय में रह रहे हैं। व्यावसायिक क्षेत्रों में भी काम का बोझ इंसानों को अकेला बना रहा है। कार्यालयों और कार्यस्थलों पर भी अकेलापन एक गंभीर चुनौती बन रहा है। कर्मचारी भावनात्मक जुड़ाव की कमी और अकेलापन लंबे समय तक बना रहा तो यह कार्य से असंतोष और कर्मचारी त्याग-पत्र जैसी स्थितियों को जन्म देता है। इससे उत्पादकता में भी गिरावट आती है। मेकिन्से और डेलॉइट जैसी वैश्विक कंसल्टिंग फर्म्स की रिपोर्ट दर्शाती हैं कि अकेलापन कर्मचारियों की उत्पादकता को १५-२० प्रतिशत तक घटा सकता है, जिससे कम्पनियों को अरबों डॉलर का नुकसान हो सकता है। अकेलेपन के इस संकट से निपटने के लिए व्यक्तिगत, सामाजिक और संस्थागत स्तर पर सामूहिक प्रयास ज़रूरी हैं। परिवार, मित्रों और सहयोगियों के साथ समय बिताना ही असली ‘समृद्धि’ है। कंपनियों में मानसिक और भावनात्मक स्थिति को समझने वाला नेतृत्व चाहिए। डिजिटल संवाद की जगह आमने-सामने, ‘घर से काम’ की जगह ‘समुदाय के साथ काम’ को प्राथमिकता देनी होगी। सरकारों को अकेलेपन को एक जनस्वास्थ्य समस्या के रूप में मान्यता देनी चाहिए और सामाजिक समावेश के लिए ठोस कार्यक्रम चलाने चाहिए।
संगठन का यह आँकड़ा भी चौंकाता है कि अकेलापन हर साल तकरीबन ८ लाख लोगों की जीवन लीला समाप्त कर रहा है। यह दर्शाता है कि व्यक्ति न केवल समाज व अपने कार्यालयीन परिवेश से अलग-थलग हुआ है, बल्कि वह परिवार से भी कटा है।

दरअसल, लोगों में यह आम धारणा बलवती हुई है कि जिसके पास पैसा है तो वह सब-कुछ कर सकता है। यही वजह है कि हमारे इर्द-गिर्द की भीड़ और आभासी ज़िंदगी के हजारों मित्रों के बावजूद व्यक्ति अकेलेपन को जीने के लिए अभिशप्त है। सही बात ये है कि लोग किसी के कष्ट और मन की पीड़ा के प्रति संवेदनशील व्यवहार नहीं करते। हर तरफ कृत्रिमताओं का बोल-बाला है। हमारे मिलने-जुलने वाले त्योहार भी अब दिखावे व कृत्रिम सौगातों की भेंट चढ़ गए हैं। हमें उन कारकों पर मंथन करना होगा, जिनके चलते व्यक्ति निजी जीवन में लगातार अकेला होता जा रहा है। असल में अकेलापन तभी मिटेगा, जब हम फिर से इंसान बनेंगे-संवेदनशील, सजीव, संवाद और रिश्तों की गर्माहट से भरे हुए।