हरिहर सिंह चौहान
इन्दौर (मध्यप्रदेश )
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बचपन का वह रंग,
लगे खेल-तमाशा जग सारा
ना तेरा ना मेरा,
खुशियों का यह फेरा
गुड्डे-गुड़ियों का यह संसार।
कभी रोना, कभी हँसना,
कभी रुठना, कभी मानना
यहाँ जग सारा है खिलौना,
गुड्डे-गुड़ियों का यह संसार।
कभी नाचना, कभी उछलना-कूदना
आगे चलना पीछे जाना
यहाँ मानव भी एक खिलौना,
गुड्डे-गुड़ियों का यह संसार।
सज-धज कर गुड्डे-राजा,
सज-धज कर गुड़िया रानी।
चलते हैं दोनों ठुमक-ठुमक,
यहाँ गुड्डे-गुड़ियों का है संसार…॥