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युद्ध-आतंक के दौर में शांति के लिए भारत की महती पुकार

ललित गर्ग

दिल्ली
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‘अन्तर्राष्ट्रीय शांति दिवस’ (२१ सितम्बर) विशेष…

‘अंतर्राष्ट्रीय शांति दिवस’ मनाना आज के समय की सबसे बड़ी मानवीय आवश्यकता है। जब पूरी दुनिया युद्ध, हिंसा, आतंकवाद, जलवायु संकट और असमानताओं के दौर से गुजर रही हो, तब शांति का महत्व केवल एक आदर्श नहीं, बल्कि अस्तित्व का आधार बन जाता है। इतिहास गवाह है कि युद्धों ने मानव सभ्यता को केवल विनाश ही दिया है। २ विश्वयुद्ध में करोड़ों लोगों की जान गई, असंख्य परिवार उजड़ गए और सभ्यता के सपनों पर गहरी चोट लगी। आज भी यूक्रेन, सीरिया, अफगानिस्तान और अफ्रीका तक की धरती पर संघर्ष व आतंकवाद की आग धधक रही है। निर्दाेष नागरिक, महिलाएं और बच्चे सबसे अधिक पीड़ा झेल रहे हैं। शरणार्थियों की भीड़, विस्थापितों के आँसू और टूटे हुए घर-परिवार इस बात का सबूत हैं कि युद्ध और आतंकवाद किसी भी समस्या का समाधान नहीं, बल्कि और बड़ी समस्या पैदा करते हैं।
पूरी दुनिया को यह याद दिलाना होगा कि युद्धविराम, संवाद और अहिंसा ही मानव सभ्यता की रक्षा कर सकते हैं। इस दिन संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में शांति की घंटी बजाई जाती है, जो यह प्रतीक है कि जब तक धरती पर शांति नहीं होगी, तब तक जीवन सुरक्षित नहीं हो सकता।
आज विज्ञान और तकनीक ने मानव को अभूतपूर्व शक्ति और संसाधन दिए हैं, लेकिन साथ ही भय, हिंसा, तनाव और असुरक्षा भी बढ़ी है। परमाणु हथियारों की दौड़ ने धरती को विनाश की कगार पर ला खड़ा किया है। जलवायु परिवर्तन और पर्यावरणीय संकट नए विवादों एवं संकटों को जन्म दे रहे हैं। इस पृष्ठभूमि में ‘अंतर्राष्ट्रीय शांति दिवस’ चेतावनी और आह्वान है। यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या हम हिंसा और युद्ध की संस्कृति से ऊपर उठकर शांति, संवाद और सहयोग की संस्कृति को स्थापित कर सकते हैं, क्या हम धर्म, जाति और राजनीति की संकीर्णताओं से निकलकर एक वैश्विक परिवार के रूप में जी सकते हैं, क्या हम शिक्षा, करुणा और अहिंसा को अपने जीवन और समाज का आधार बना सकते हैं ?
विश्व शांति की दिशा में भारत का योगदान हमेशा से उल्लेखनीय रहा है और वर्तमान समय में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे नई दिशा और ऊर्जा प्रदान की है। उन्होंने अंतरराष्ट्रीय मंचों पर बार-बार ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ और ‘एक पृथ्वी, एक परिवार, एक भविष्य’ का संदेश देकर मानवता को साझा परिवार के रूप में देखने की दृष्टि दी है। वैश्विक मंचों पर श्री मोदी ने संवाद, कूटनीति, अहिंसा और सह-अस्तित्व को संघर्ष व युद्ध से बेहतर विकल्प बताया है।
महात्मा गांधी ने कहा था- “शांति का कोई रास्ता नहीं, शांति ही रास्ता है।” यह विचार आज और भी प्रासंगिक प्रतीत होता है। नेल्सन मंडेला ने भी कहा था- “शांति का निर्माण हथियारों से नहीं, बल्कि आपसी विश्वास और मेल-जोल से होता है।” संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंतोनियो गुतारेस बार-बार यह चेतावनी देते रहे हैं कि “दुनिया को हथियारों की नहीं, बल्कि कूटनीति और संवाद की आवश्यकता है। शांति केवल एक आदर्श नहीं, यह सभी के जीवन और विकास का अधिकार है।” स्वामी विवेकानंद ने भी विश्व धर्म महासभा में यह संदेश दिया था कि समस्त धर्म मानवता को जोड़ने के लिए हैं, बाँटने के लिए नहीं।

आज संयुक्त राष्ट्र के शांति अभियानों में भारत की भूमिका सबसे बड़ी एवं महत्वपूर्ण है, भारतीय सैनिक और अधिकारी अनेक देशों में जाकर शांति स्थापना के मिशनों में सक्रिय योगदान दे रहे हैं। भारत ने न केवल सिद्धांतों से बल्कि व्यवहार में भी यह दिखाया है कि शांति उसका मूल आदर्श है। इन विचारों और योगदानों की गूंज आज के समय में हमें सचेत करती है। अगर मानवता को बचाना है तो युद्ध, आतंकवाद और हिंसा को छोड़कर केवल शांति को अपनाना होगा। जब व्यक्ति, समाज और राष्ट्र स्तर पर शांति की चेतना जागेगी तभी सभ्यता का भविष्य सुरक्षित हो सकेगा। हमें हिंसा, नफ़रत, भेदभाव और असमानता के खिलाफ़ आवाज़ उठानी होगी;सह-अस्तित्व का अभ्यास करना होगा; और अपनी दुनिया की विविधता को अपनाना होगा। शांति-स्थापना करने के कई तरीके हैं। समझदारी, अहिंसा और निरस्त्रीकरण की तत्काल आवश्यकता के बारे में बातचीत शुरू करें। अपने समुदाय में स्वयंसेवा करें, भेदभावपूर्ण भाषा एवं व्यवहार को चुनौती दें, अशांति फैलाने वालों की रिपोर्ट करें, शांति स्थापना के कार्य शब्दों से अधिक जन-जीवन में जोर से गूंजें।