डॉ. विद्या ‘सौम्य’
प्रयागराज (उत्तर प्रदेश)
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उस दिन…
तुम मुझे ऐसे लगे, जैसे-
सोलह कलाओं से परिपूर्ण,
उदित हुआ कोई चाँद है।
आए थे…
तुम जिस दिन बनकर खास,
उसी रात्रि…
ब्रह्माण्ड रच रहा था रास,
पलकों में झूमी थी, मेरे भी मधु चाँदनी,
वर्षों से तन्हा थी, आई थी मधु यामिनी,
सजदे में हम ही नहीं, तुम भी झुक गए थे,
शरद की चाँदनी में, हम दोनों लुट गए थे,
मधुमय मिलन की वह बेला, अब भी मुझे
याद है…।
बरसा था नूर अम्बर से, फिजाओं से फरियाद है,
भांति-भांति खिल रहे थे सुमन
साँस-साँस में महक रहे थे चमन,
अल्कों पे लिपटी थी वन-बेल सी लताएं
अधरों पर सिमटी थी, यौवन की फिजाएं।
उस दिन…
सौभाग्य की, रेखाएं गढ़ रही थीं,
नए-नए अंदाज़ में, माणिकाएं जुड़ रही थी,
क्षण-क्षण स्पंदित होता, हृदय प्रेम से पूर्ण था
धवल चाँदनी की डोर से, बंधन ये अनमोल था।
उस दिन…
तुम मुझे ऐसे लगे, जैसे।
सोलह कलाओं से परिपूर्ण,
उदित हुआ कोई चाँद है॥