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आसरा

डॉ. योगेन्द्र नाथ शुक्ल
इन्दौर (मध्यप्रदेश)
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“तुम्हारी आँखें झपकी जा रहीं…. तुम सो जाओगे और देखना दीए बुझ जाएंगे !”
“अभी तक बुझे क्या…? तू आराम से सो, मैं दीयों को नहीं बुझने दूंगा, दीयों में तेल डालता रहूंगा।”
घरवाली ने आँखें बंद कर ली। इधर, उसने बीड़ी सुलगा ली ताकि नींद उड़ सके। नींद थी कि जाने का नाम ही नहीं ले रही थी। उसने घड़ी देखी ३ बज रहे थे। २ घंटे बाद सवेरा हो जाएगा… ! उसकी आँखें फिर झपकने लगीं। ऊंघते-ऊंघते भी वह आँखें फाड़ कर, उन दीयों को देख लेता। पत्नी की ओर भी नजरें डाल लेता, कि उसने ऊंघते हुए उसे देखा तो नहीं ?
चारों दीयों में तेल डालकर, फिर अपनी झोपड़ी के दरवाजे पर बैठ गया, ताकि उसे दीए दिखाई देते रहें। कुछ देर बाद फिर नींद ने उसे अपनी गिरफ्त में ले लिया।
“मुझे मालूम था कि तुम जाग नहीं पाओगे जाओ, सो जाओ ! अब मैं जागूंगी… मंदिर में उस औरत ने बताया था कि यदि रात भर दीए जलते रहेंगे, तभी लक्ष्मी माता प्रसन्न हो जाएंगी। तुमको तो कोई बात समझ में ही नहीं आती !”
“… यदि ऐसी बात है…, तो ठीक है… अब हम दोनों ही जागेंगे !”