बबिता कुमावत
सीकर (राजस्थान)
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जहां नारी शक्ति के,
नारों संग ही धरती जगती है।
इस समाज में आज भी,
लड़कियों के लिए दीवारों की लिपि अलग है।
जहां आज भी लड़कियाँ,
दृश्य है, खिलौना है
संवेदना नहीं।
आज भी समाज की आँखें,
लड़कियों के कपड़ों से तौलती है
उनके चरित्र की गहराई।
आज भी समाज में,
‘शेर’ लड़कों को ही कहते हैं
जबकि शेरनियाँ बन रही लड़कियाँ।
आज भी लड़कों की जुबानें,
तीर छोड़ती है
लड़कियों के लिए।
करते हैं पुरुषत्व सिद्ध,
दूसरों की गरिमा को रोंद कर।
शायद समाज व देश,
उसी दिन आजाद कहलाएगा
जिस दिन संस्कार,
समझ की जमीन से उपजेगा।
बेटियाँ धरती की कोख से,
निकलती वह कविता है
जो आँसुओं से लिखी जाती है,
समय आने पर गुर्राती है।
यूँ ही जन्म नहीं लेती बेटियाँ,
उनका मौन भी मुखर होता है।
आखिर एक दिन लड़कों को,
पीछे धकेल कर
हर काम अपने हाथ में लेंगीं बेटियाँ।
अत्याचारियों को स्वयं,
सजा देंगीं बेटियाँ॥
