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जब समुदाय सशक्त, तब ही शहर समृद्ध

ललित गर्ग

दिल्ली
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‘विश्व शहर दिवस'(३१ अक्टूबर) विशेष…

‘विश्व शहर दिवस’ हर साल ३१ अक्टूबर को मनाया जाता है। इसका उद्देश्य शहरीकरण में अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की रुचि बढ़ाना, चुनौतियों का समाधान करने में देशों के बीच सहयोग को प्रोत्साहित करना और सतत विश्व नगर योजना को अधिक मानवीय, अपराधमुक्त एवं पर्यावरण संपोषक बनाना है। यह दिवस पहली बार २०१४ में मनाया गया था। निश्चित ही शहर उस उम्मीद का माध्यम बने, जहां सौन्दर्य एवं संवेदनाएं अनेक रूपों में बिछी हो, जहां कुछ नया और कुछ पुराना, पर सब मनमोहक हो।
इस वर्ष का विषय इस बढ़ती मान्यता को दर्शाता है कि डिजिटल तकनीकों की परिवर्तनकारी शक्ति वैश्विक स्तर पर शहरी जीवन को नया रूप दे रही है और शहरों और मानव बस्तियों के आकल्पन (डिज़ाइन), नियोजन, प्रबंधन और संचालन के तरीकों को बेहतर बनाने के लिए व्यापक अवसर प्रदान कर रही है। ‘सशक्त समुदाय, समृद्ध शहर’ मुद्दे को बल देते हुए यह दिवस समुदायों को जागरूक, सहयोगी और आत्मनिर्भर करने की पहल है, ताकि शहर वास्तव में विकसित, संस्कृतिमय और समृद्ध बन सके। आज जब पूरी दुनिया तीव्र गति से शहरीकरण की ओर बढ़ रही है, तब यह दिवस आत्ममंथन का अवसर है कि क्या हमारे शहर केवल कांक्रीट की इमारतों और चकाचौंध का विस्तार बन रहे हैं या उनमें मानवीय संवेदनाओं, संस्कृति, पर्यावरणीय संतुलन और सामाजिक समरसता का पोषण भी हो रहा है।
भारत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में नया भारत, विकसित भारत को विकसित करते हुए शहरीकरण का एक नया मॉडल प्रस्तुत हुआ है, जिसने शहरों के विकास को केवल भौतिक संरचनाओं तक सीमित न रखकर जीवन मूल्यों और नागरिक सहभागिता से जोड़ा है। अमृत मिशन, प्रधानमंत्री आवास योजना, स्वस्थ भारत मिशन, स्मार्ट शहर योजना और स्वच्छ भारत अभियान जैसी योजनाओं ने शहरों के ढांचे में नई चेतना का संचार किया है। इन योजनाओं ने यह साबित किया है कि जब सरकार की नीतियों में जनता की भागीदारी और पारदर्शिता जुड़ती है तो विकास केवल आँकड़ों में नहीं, व्यवहार में भी दिखने लगता है। शहरीकरण का अर्थ केवल ऊँची इमारतें, चौड़ी सड़कें और चमकदार बाजार नहीं है, बल्कि यह एक जीवंत सामाजिक प्रक्रिया है जिसमें जीवन स्तर, विचार और व्यवहार की गुणवत्ता निहित होती है। शहरों ने मनुष्य को रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य और सुविधा दी है, लेकिन इसी के साथ प्रदूषण, भीड़, तनाव, अपराध, असमानता और मानवीय रिश्तों की दूरी भी दी है। हर बड़ा शहर आज साँस लेने के लिए हवा, पीने के लिए स्वच्छ पानी और जीने के लिए शांति को तरस रहा है। विकास के नाम पर प्रकृति का ह्रास हो रहा है और भौतिक प्रगति के साथ मानसिक थकान बढ़ रही है।
भारत के प्राचीन नगर जैसे काशी, उज्जैन, पुष्कर, मथुरा और अयोध्या केवल व्यापारिक या राजनीतिक केंद्र नहीं थे, वे संस्कृति, अध्यात्म और सह-अस्तित्व की जीवंत प्रयोगशालाएं थे। वहाँ नगर का अर्थ केवल रहने की जगह नहीं, जीने की कला था। आज के नगर यदि इन मूल्यों को फिर से अपनाएं तो वे केवल आधुनिक ही नहीं, मानवीय भी बन सकते हैं। पश्चिम के देशों में शहरीकरण तकनीकी दक्षता और सुविधाओं की दृष्टि से आगे है, पर वहाँ मानवीय ऊष्मा और आत्मीयता का अभाव है। भारत यदि अपने शहरीकरण में मानवता, पर्यावरण और संस्कृति का संगम बनाए रखे तो वह पूरी दुनिया के लिए एक आदर्श प्रस्तुत कर सकता है। शहर तब सचमुच जीवंत बनेंगे, जब उनमें रहने वाले लोग पर्यावरण के प्रति संवेदनशील, सामाजिक रूप से जागरूक और मानवीय दृष्टि से समर्पित होंगे। प्रदूषण को रोकना, हरियाली बढ़ाना, स्वच्छता को जीवनचर्या बनाना, झुग्गी बस्तियों को सम्मानजनक आवास देना, जनसहभागिता और नागरिक जिम्मेदारी की भावना को मजबूत करना ही वास्तविक शहरीकरण का मार्ग है।
भारत के शहर आज तेजी से बदल रहे हैं। मेट्रो, ऊँची इमारतें, चौड़ी सड़कों और चमकदार मॉल्स ने इनका नया चेहरा गढ़ दिया है। यह परिवर्तन विकास की चमक दिखाता है, पर इसके भीतर एक गहरी पीड़ा भी छिपी है, कहीं न कहीं शहरों की आत्मा, पहचान, उनकी गर्माहट खोती जा रही है। जो गलियाँ कभी अपनत्व और रिश्तों की खुशबू से महकती थीं, वे अब भागदौड़, भीड़ और उदासीनता का प्रतीक बन गई हैं। स्वतंत्रता के बाद भारत ने आधुनिकता की दिशा में तेज़ी से कदम बढ़ाए, पर इस भौतिक विकास की दौड़ में मानवीय संवेदनाएं और सामाजिक संबंध पीछे छूट गए। शहरों का विस्तार अब मनुष्य की जरूरतों के बजाय बाज़ार की मांगों के अनुसार हो रहा है। नई कॉलोनियाँ और ऊँची इमारतें पुराने मोहल्लों की जगह ले रही हैं, पर उनके भीतर वह आत्मीयता एवं संवेदनशीलता नहीं, जो कभी लोगों के दिलों को जोड़ती थी। शहर अब केवल रहने की जगह नहीं रहे, वे उपभोक्तावाद और प्रतिस्पर्धा के केंद्र बन गए हैं।

नई पीढ़ी के लिए शहर अब केवल रोजगार, चमक और अवसर का माध्यम हैं। उसमें अपने शहर की आत्मा को समझने का भाव कम होता जा रहा है। यह सवाल अब और गहराता जा रहा है कि क्या विकास का अर्थ उसमें मानवीय रिश्तों की ऊष्मा, संस्कृति और इतिहास का जीवंत अहसास भी शामिल होना चाहिए ? आज के शहर चमकते तो हैं, पर भीतर से कहीं खाली हैं। यह समय हमें सोचने पर विवश करता है कि क्या हम ऐसे शहर बना रहे हैं जहाँ मनुष्य के लिए जगह बची रहे, जहाँ इतिहास और संवेदना साथ-साथ साँस ले सकें। असली विकास वही होगा, जहाँ शहरों का विस्तार हो, पर इंसानियत की जड़ें भी उतनी ही गहरी बनी रहें।इस दिवस का संदेश यही है कि शहर केवल दीवारों और सड़कों का जाल नहीं, बल्कि जीवन की एक संस्कृति हैं। जब समुदाय सशक्त होंगे, तब ही शहर समृद्ध होंगे, और जब शहर समृद्ध होंगे, तब ही मानवता सचमुच प्रगतिशील होगी।