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मन का खेल

सीमा जैन ‘निसर्ग’
खड़गपुर (प.बंगाल)
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महासागर-सा यह मन मेरा…
धैर्य-बंधन में बंधा हुआ,
नन्हें कंकड़ से फट जाता…
दामन ज्यों धीर का फिसल गया।

एकरसता ज़िंदगी की…
तार-तार मन कर देती,
जर्रा-जर्रा खोल देती…
एकाकी से जीवन का।

क्यों, किसलिए है जीना…
कुछ समझ नहीं आता,
छूट रही ज़िंदगी हाथ से…
कांप-कांप मन है जाता।

गंगा-जमना-सी धाराएं…
बंधन तोड़ निकल पड़ती,
थोड़ा-सा मन खाली होता…
कुछ सुकून-सा मिल जाता।

अहसान बहुत करती बह-बहकर…
अश्रु की सहस्त्र धारा मुझ पर,
निराशा की बदली छट जाती…
उमंग की कलियाँ खिल जाती।

वही दिवस उजला हो जाता…
वही जीवन प्यारा लगता।
फिर वहीं इंतजार की घड़ियाँ…
मन का खेल अजब रहता॥