डॉ. विद्या ‘सौम्य’
प्रयागराज (उत्तर प्रदेश)
************************************************
मैं ढूँढती हूँ…
वजूद अपना अक्सर,
चूल्हे की धुआँधार आँखों में,
खिड़की से झाँकती, एक टुकड़ा धूप में
जैसे मेरे हिस्से की, बस इतनी ही उमर है।
मैं सहती हूँ…
कभी शब्दों की तीखी मार,
कभी खामोशियों का भारी विस्तार
मैंने सिला है होंठों को हर उस मोड़ पर,
जहाँ सवाल उठाना भी वर्जित है।
मैं सोचती हूँ…
पैरों में बेड़ियाँ तो, समाज ने दी थी,
मगर मन की बेड़ियाँ, हमने खुद ही सजा लीं
किसी की बेटी, किसी की पत्नी, किसी की माँ,
इन रिश्तों की ओट में, अपनी पहचान गँवा दी।
एक टीस है…
जो आँगन की तुलसी में जल देते वक्त जागती है,
जो आधी रात को सिरहाने दबे पाँव आती है
वह वेदना जो न विलाप है, न विद्रोह,
बस एक गहरी, अंतहीन, मूक प्यास है।
मैं पत्थर नहीं हूँ…
पर पत्थर जैसा धीरज रखती हूँ,
मैं समंदर हूँ, जो सारा खारापन पीकर भी हँसती हूँ।
मेरी वेदना के जलते हर एक कतरे में,
एक पूरा ब्रह्मांड पिघलने की ताकत बसती है॥