योगेन्द्र प्रसाद मिश्र (जे.पी. मिश्र)
पटना (बिहार)
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बिहार का गया क्षेत्र बहुत ही पुराना धार्मिक स्थल है। यहाँ दूर-दूर के हिन्दू अपने पितरों का पिण्डदान करने आते हैं। वे भारत के या नेपाल के हों या सुदूर मॉरिशस आदि अन्य हिन्दू-प्रवासी देशों के,वे सभी अपने पितरों के पिण्ड दान करने साल में एक बार शारदीय नवरात्रा से पहले पखवाड़े में यहाँ आते हैं। हिन्दू धर्मावलंबियों के लिए गया-पिण्डदान की आस्था दूर-दूर तक फैली हुई है। वैसे,यह पक्ष इस वर्ष प्रथम आश्विन ३ सितम्बर २०२० को पितृ तर्पण गया मेला आरंभ के रूप में शुरू हो रहा है और १७ सितम्बर २०२० को महालयान्त के दिन समाप्त हो रहा है।
लगता है कि इसी पितृ-स्वजन तर्पण के उद्देश्य से ही महारानी अहिल्याबाई यहाँ आयीं और ‘विष्णुपद’ नाम से भव्य मंदिर यहाँ बनवाया। इस मंदिर की स्थापत्य-कला बहुत ही सुंदर है और श्राद्ध के दिनों में यहाँ एक बड़ा मेला लगता है,जिसका प्रबंध सरकार के हाथों में होता है। पिंडदान करनेवाले इसी विष्णुपद मंदिर में पहले पिंड देते हैं,जो फल्गू नदी के पश्चिमी किनारे पर अवस्थित है। उसके बाद गया के ही विभिन्न स्थलों पर पिण्डदान करने की प्रथा है।
मैं लगभग ४ वर्ष गया में कार्यरत था,जहाँ रहते हुए अन्य प्रसिद्ध स्थलों पर भी जाने का अवसर मिला। गया के पास ही बोधगया में निरंजना नदी के किनारे भगवान बुद्ध का बोधिमंदिर और बोधिवृक्ष है,जहाँ सिद्धार्थ गौतम को ईसा से लगभग ३०० वर्ष पहले ज्ञान प्राप्त हुआ था,और कालांतर में बौद्ध धर्म की स्थापना हुई। विश्व के सारे देश जहाँ बौद्ध धर्म चलता है,उनके भी मंदिर बोधगया में हैं और यह जगह उनके लिए एक तीर्थ-स्थल है। इसके चलते यहाँ एक अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा भी है।
गया जैसे पावन-स्थल की अधिष्ठात्री बनने से महारानी अहिल्याबाई होलकर की धार्मिक आस्था जग जाहिर हो गई। इसके अलावा उन्होंने काशी में भी विश्वनाथ मंदिर १७८० में बनवाया और अन्नपूर्णा मंदिर भी। उन्होंने कलकत्ता वाली कालीस्थान और काशी के शिव मंदिर को सड़क मार्ग से भी जुड़वा दिया। इसके अलावा उन्होंने जगह जगह पर कुएँ खुदवाए,बावड़ियाँ बनवायीं,धर्मशाला बनवाई,भूखों के लिए अन्न-क्षेत्र में सदाव्रत बँटवाया,प्याऊ चलवाई,और ग्रामीण क्षेत्र के लिए भी सड़कें बनवाईं। मंदिरों में विद्वानों की नियुक्ति शास्त्रों के मनन-चिंतन और प्रवचन हेतु की।
उनके राज्य में कला,संस्कृति,शिक्षा,व्यापार, कृषि आदि सभी क्षेत्रों का विकास हुआ।
भारत में जिन महिलाओं का जीवन आदर्श, वीरता,त्याग तथा देशभक्ति के लिए सदा याद किया जाता है,उनमें रानी अहिल्याबाई होल्कर का नाम प्रमुख है। उनका जन्म ३१ मई १७२५ को ग्राम छौंदी (अहमदनगर, महाराष्ट्र) में साधारण कृषक परिवार में हुआ था। इनके पिता मनकोजी राव शिन्दे परम शिवभक्त थे। अतः यही संस्कार बालिका अहिल्या पर भी पड़ा।
एक रोचक घटना इस आलेख के बीज में आती है।
एक बार इन्दौर के राजा मल्हारराव होल्कर ने वहां से जाते हुए मन्दिर में हो रही आरती का मधुर स्वर सुना। वहां पुजारी के साथ एक बालिका भी पूर्ण मनोयोग से आरती कर रही थी। उन्होंने उसके पिता को बुलवाकर उस बालिका को अपनी पुत्रवधू बनाने का प्रस्ताव रखा। मनकोजी राव भला क्या कहते; उन्होंने सिर झुका दिया। इस प्रकार वह ८ वर्षीया बालिका इन्दौर के राजकुंवर खांडेराव की पत्नी बनकर राजमहलों में आ गयी। इन्दौर में आकर भी अहिल्या पूजा एवं आराधना में रत रहती। कालान्तर में उन्हें २ पुत्री तथा १ पुत्र की प्राप्ति हुई। १७५४ में उनके पति युद्ध में मारे गये,तो १७६६ में उनके ससुर मल्हार राव का भी देहांत हो गया। इस संकटकाल में रानी ने तपस्वी की भांति श्वेत वस्त्र धारण कर राजकाज चलाया;पर कुछ समय बाद उनके पुत्र,पुत्री तथा पुत्रवधू भी चल बसे। इस वज्राघात के बाद भी रानी अविचलित रहते हुए अपने कर्तव्य मार्ग पर डटी रहीं।
वह युग ऐसा था जब बात-बात पर युद्ध होता था और सेना रखने के लिए भी बहुत खर्च होता था,जिसके चलते सेना को वेतन आदि देने में भी बड़ी कठिनाई हो जाती थी,क्योंकि मालवा ऐसे छोटे राज्य में कर-संग्रह बहुत कम होता था,तो कहीं से उधार भी लेना होता था। इसी संबंध में एक बात कही जाती है कि उनके मंदिर-निर्माण और अन्य धर्म-कार्यों के महत्व के विषय में मतभेद है। इन कार्यों में अहिल्याबाई ने अंधाधुंध खर्च किया और सेना नए ढंग पर संगठित नहीं की। मालवा राज्य के सेनापति तुकोजी होलकर बनाए गये थे और उनकी सेना को उत्तरी अभियानों में अर्थसंकट सहना पड़ा,कहीं-कहीं यह आरोप भी है। इन मंदिरों को हिंदू धर्म की बाहरी चौंकियाँ बतलाया गया है।
तुकोजीराव होलकर के पास १२ लाख रुपए थे,फिर भी वह अहिल्याबाई से रुपए की माँग पर माँग कर रहा था और संसार को दिखलाता था कि रुपए-पैसे से तंग हूँ। फिर इसमें अहिल्याबाई का दोष क्या था ? हिंदुओं के लिए धर्म की भावना सबसे बड़ी प्रेरक शक्ति रही है;अहिल्याबाई ने उसी का उपयोग किया। तत्कालीन अंधविश्वासों और रुढ़ियों का वर्णन एक उपन्यास में आया है। इनमें एक विश्वास था कि ‘मांधता के निकट नर्मदा तीर स्थित खड़ी पहाड़ी से कूदकर मोक्ष-प्राप्ति के लिए प्राणत्याग-आत्महत्या कर डालना।’ शेष तो समझने की बात है।
‘महारानी अहिल्याबाई के जीवन का लक्ष्य राज्यभोग नहीं था। वे प्रजा को अपनी सन्तान समझती थीं। वे घोड़े पर सवार होकर स्वयं जनता से मिलती थीं। उन्होंने जीवन का प्रत्येक क्षण राज्य और धर्म के उत्थान में लगाया। एक बार गलती करने पर उन्होंने अपने एकमात्र पुत्र को भी हाथी के पैरों से कुचलने का आदेश दे दिया था;पर फिर जनता के अनुरोध पर उसे कोड़े मार कर ही छोड़ दिया।’
ऐसे में पड़ोसी राजा पेशवा राघोबा ने इन्दौर के दीवान गंगाधर यशवन्त चन्द्रचूड़ से मिलकर अचानक हमला बोल दिया। रानी ने धैर्य न खोते हुए पेशवा को एक मार्मिक पत्र लिखा। रानी ने लिखा कि-यदि युद्ध में आप जीतते हैं,तो एक विधवा को जीतकर आपकी कीर्ति नहीं बढ़ेगी,और यदि हार गये,तो आपके मुख पर सदा को कालिख पुत जाएगी। मैं मृत्यु या युद्ध से नहीं डरती। मुझे राज्य का लोभ नहीं है,फिर भी मैं अन्तिम क्षण तक युद्ध करूंगी। इस पत्र को पाकर पेशवा राघोबा चकित रह गये। इसमें जहां एक ओर रानी ने उन पर कूटनीतिक चोट की थी,वहीं दूसरी ओर अपनी कठोर संकल्प शक्ति का परिचय भी दिया था। रानी ने देशभक्ति का परिचय देते हुए उन्हें अंग्रेजों के षड्यन्त्र से भी सावधान किया था। अतः उसका मस्तक रानी के प्रति श्रद्धा से झुक गया और वह बिना युद्ध किए ही पीछे हट गया।
महारानी अहिल्याबाई का जीवन धैर्य, साहस,सेवा,त्याग और कर्तव्यपालन का प्रेरक उदाहरण है। इसीलिए एकात्मता स्तोत्र के ११वें श्लोक ‘लक्ष्मीरहल्या चन्नम्मा रुद्रमाम्बा सुविक्रमा,निवेदिता सारदा च प्रणम्या मातृदेवताः॥’ में उन्हें झांसी की रानी लक्ष्मीबाई,चन्नम्मा,रुद्रमाम्बा जैसी वीर नारियों के साथ याद किया जाता है।
महारानी अहिल्याबाई के शौर्यपूर्ण कार्यों को कृतज्ञ राष्ट्र ने राष्ट्र-गौरव माना और स्वतंत्र भारत में अहिल्याबाई होल्कर का नाम बहुत ही सम्मान के साथ लिया जाने लगा। इनके बारे में अलग-अलग राज्यों की पाठ्य पुस्तकों में अध्याय हैं।
चूंकि,अहिल्याबाई को एक ऐसी महारानी के रूप में जाना जाता है, जिन्होंनें भारत के अलग-अलग राज्यों में मानवता की भलाई के लिए अनेक कार्य किए थे। इसलिए भारत सरकार तथा विभिन्न राज्यों की सरकारों ने उनकी प्रतिमा बनवायी हैं और उनके नाम से कई कल्याणकारी योजनाएँ भी चलायी जा रही हैं। ऐसी ही एक योजना उत्तराखंड सरकार की ओर से भी चलाई जा रही है,जो अहिल्याबाई को पूर्णं सम्मान देती है। इस योजना का नाम ‘अहिल्याबाई होल्कर भेड़ बकरी विकास योजना’ है।
‘इस महान् शासिका के लिए एक श्रद्धांजलि के रूप में इंदौर घरेलू हवाई अडडे् का नाम देवी अहिल्याबाई होल्कर हवाई अड्डा रखा गया। इसी तरह इंदौर विश्वविद्यालय को देवी अहिल्या विश्वविद्यालय नाम दिया गया है।
अहिल्याबाई को एक दार्शनिक रानी के रूप में भी जाना जाता है। अहिल्याबाई एक महान् और धर्मपारायण स्त्री थी। वह हिंदू धर्म को मानने वाली थी और भगवान शिव की बड़ी भक्त थी।
सारा राष्ट्र महारानी अहिल्याबाई को जयंती पर नमन कर रहा है। बिहार भी उनके धार्मिक कार्यों के लिए नमन कर रहा है। उनके व्यक्तितव की विशालता,परोपकारिता, सहृदयता एवं विद्या अनुरागिता के लिए उन्हें शत-शत नमन करता हूँ।
परिचय-योगेन्द्र प्रसाद मिश्र (जे.पी. मिश्र) का जन्म २२ जून १९३७ को ग्राम सनौर(जिला-गोड्डा,झारखण्ड) में हुआ। आपका वर्तमान में स्थाई पता बिहार राज्य के पटना जिले स्थित केसरीनगर है। कृषि से स्नातकोत्तर उत्तीर्ण श्री मिश्र को हिन्दी,संस्कृत व अंग्रेज़ी भाषा का ज्ञान है। इनका कार्यक्षेत्र-बैंक(मुख्य प्रबंधक के पद से सेवानिवृत्त) रहा है। बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन सहित स्थानीय स्तर पर दशेक साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए होकर आप सामाजिक गतिविधि में सतत सक्रिय हैं। लेखन विधा-कविता,आलेख, अनुवाद(वेद के कतिपय मंत्रों का सरल हिन्दी पद्यानुवाद)है। अभी तक-सृजन की ओर (काव्य-संग्रह),कहानी विदेह जनपद की (अनुसर्जन),शब्द,संस्कृति और सृजन (आलेख-संकलन),वेदांश हिन्दी पद्यागम (पद्यानुवाद)एवं समर्पित-ग्रंथ सृजन पथिक (अमृतोत्सव पर) पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। सम्पादित में अभिनव हिन्दी गीता (कनाडावासी स्व. वेदानन्द ठाकुर अनूदित श्रीमद्भगवद्गीता के समश्लोकी हिन्दी पद्यानुवाद का उनकी मृत्यु के बाद,२००१), वेद-प्रवाह काव्य-संग्रह का नामकरण-सम्पादन-प्रकाशन (२००१)एवं डॉ. जितेन्द्र सहाय स्मृत्यंजलि आदि ८ पुस्तकों का भी सम्पादन किया है। आपने कई पत्र-पत्रिका का भी सम्पादन किया है। आपको प्राप्त सम्मान-पुरस्कार देखें तो कवि-अभिनन्दन (२००३,बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन), समन्वयश्री २००७ (भोपाल)एवं मानांजलि (बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन) प्रमुख हैं। वरिष्ठ सहित्यकार योगेन्द्र प्रसाद मिश्र की विशेष उपलब्धि-सांस्कृतिक अवसरों पर आशुकवि के रूप में काव्य-रचना,बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के समारोहों का मंच-संचालन करने सहित देशभर में हिन्दी गोष्ठियों में भाग लेना और दिए विषयों पर पत्र प्रस्तुत करना है। इनकी लेखनी का उद्देश्य-कार्य और कारण का अनुसंधान तथा विवेचन है। पसंदीदा हिन्दी लेखक-मुंशी प्रेमचन्द,जयशंकर प्रसाद,रामधारी सिंह ‘दिनकर’ और मैथिलीशरण गुप्त है। आपके लिए प्रेरणापुंज-पं. जनार्दन मिश्र ‘परमेश’ तथा पं. बुद्धिनाथ झा ‘कैरव’ हैं। श्री मिश्र की विशेषज्ञता-सांस्कृतिक-काव्यों की समयानुसार रचना करना है। देश और हिंदी भाषा के प्रति आपके विचार-“भारत जो विश्वगुरु रहा है,उसकी आज भी कोई राष्ट्रभाषा नहीं है। हिन्दी को राजभाषा की मान्यता तो मिली,पर वह शर्तों से बंधी है कि, जब तक राज्य का विधान मंडल,विधि द्वारा, अन्यथा उपबंध न करे तब तक राज्य के भीतर उन शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाता रहेगा, जिनके लिए उसका इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले प्रयोग किया जा रहा था।”