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बच्चों का सर्वांगीण विकास सही मार्गदर्शन-प्रेम से ही संभव

प्रो.डॉ. शरद नारायण खरे
मंडला(मध्यप्रदेश)

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परिवार यानी माता-पिता बच्चे के व्यक्तित्व निर्माण की पहली पाठशाला है। उसमें भी ‘माँ’ की भूमिका सबसे महत्त्वपूर्ण है। अगर माता-पिता अपने बालक से प्रेम करते हैं और उसकी अभिव्यक्ति भी करते हैं,उसके प्रत्येक कार्य में रुचि लेते हैं,उसकी इच्छाओं का सम्मान करते हैं तो बालक में उत्तरदायित्व,सहयोग,सद्भावना आदि सामाजिक गुणों का विकास होगा और वह समाज के संगठन में सहायता देने वाला एक सफल नागरिक बन सकेगा। अगर घर में ईमानदारी-सहयोग का वातावरण है तो बालक में इन गुणों का विकास भलीभाँति होगा,अन्यथा वह सभी नैतिक मूल्यों को ताक पर रखकर स्वच्छंदता करेगा,और समाज के प्रति घृणा का भाव लिए समाज के प्रति विद्रोही बन जाएगा।
बच्चों का नैतिक विकास उसके पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन पर निर्भर होता है।
शिक्षालय के पर्यावरण का भी बालक के मानसिक स्वास्थ्य पर पर्याप्त प्रभाव पड़ता है। उसका अपने शिक्षक तथा सहपाठियों से जो सामाजिक संबंध होता है वह अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। बच्चों को शिक्षा देने के लिए सबसे पहले तो उन्हें प्यार करना चाहिए। शिक्षक जब बच्चों को प्यार करता है,अपना हृदय उन्हें अर्पित करता है,तभी वह उनमें श्रम की खुशी,मित्रता व मानवीयता की भावनाएँ भर सकता है। शिक्षक को बाल हृदय तक पहुँचना होता है। वह शाला मेें ऐसा वातावरण बनाए कि, विद्यालय घर बन जाए। जहाँ भय न हो,केवल सौहार्द हो। केवल तभी वह बच्चों को अपने परिवार,शाला,देश से प्रेम करना सिखा सकेगा,उनमें श्रम और ज्ञान पाने की अभिलाषा जगा सकेगा। शिक्षण का सार है-छात्रों और शिक्षकों के मन का मिलन। सद्भावना और विश्वास का वातावरण। परिवार जैसा स्नेह और सौहार्द। बच्चों के प्रकृति-प्रदत्त गुणों को मुखारित करना,उनके नैतिक गुणों को पहचानना और सँवारना,उन्हें सच्चे ईमानदार और उच्च आदर्शों के प्रति निष्ठावान नागरिक बनाना शिक्षक का ध्येय है।
हर बालक अनगढ़ पत्थर की तरह है जिसमें सुन्दर मूर्ति छिपी है,जिसे शिल्पी की आँख देख पाती है। वह उसे तराश कर सुन्दर मूर्ति में बदल सकता है,क्योंकि मूर्ति पहले से ही पत्थर में मौजूद होती है। शिल्पी तो बस उस फालतू पत्थर को जिसमें मूर्ति ढकी होती है,एक तरफ कर देता है और सुन्दर मूर्ति प्रकट हो जाती है। माता-पिता शिक्षक और समाज बालक को इसी प्रकार सँवार कर खूबसूरत व्यक्तित्व प्रदान करते हैं।
व्यक्तित्व-विकास में वंशानुक्रम तथा परिवेश प्रधान तत्व हैं। वंशानुक्रम व्यक्ति को जन्मजात शक्तियाँ प्रदान करता है। परिवेश उसे इन शक्तियों को सिद्धि के लिए सुविधाएँ प्रदान करता है। बालक के व्यक्तित्व पर सामाजिक परिवेश प्रबल प्रभाव डालता है। ज्यों-ज्यों बालक विकसित होता जाता है,वह उस समाज या समुदाय की शैली को आत्मसात् कर लेता है,जिसमें वह बड़ा होता है,व्यक्तित्व पर गहरी छाप छोड़ते हैं।
आज समाज में जो वातावरण बच्चों को मिल रहा है,वहाँ नैतिक मूल्यों के स्थान पर भौतिक मूल्यों को महत्व दिया जाता है,जहाँ एक अच्छा इंसान बनने की तैयारी की जगह वह एक धनवान,सत्तावान समृद्धिवान बनने की हर कला सीखने के लिए प्रेरित हो रहा है ताकि समाज में उसकी एक हैसियत (स्टेटस ?)बन सके। माता-पिता भी उसी दिशा में उसे बचपन से तैयार करने लगते हैं। भौतिक सुख-सुविधाओं का अधिक से अधिक अर्जन ही व्यक्तित्व विकास का मानदंड बन गया है,पर माता-पिता को ऐसेे प्रयास करने चाहिए,जिससे वे बच्चोंं में वैज्ञानिक चेतना का विकास भी कर सकें और मानवीय संवेदनाएँ भी जगा सकें,ताकि उनके चरित्र को मानवीय रिश्तों की खुशबू और बंधुत्व की भावना महका सके। हमारी कोशिश होनी चाहिए कि हम सबके सामूहिक प्रयासों से बच्चों को भविष्य की दुनिया और समाज के साथ तालमेल बनाने और उसके अनुरूप अपने जीवन को निर्मित करने के पूरे अवसर मिलें। आज आवश्यकता इस बात की है कि बच्चों को सही प्रेरणा,सही मार्ग-दर्शन व सही परामर्श के साथ स्वस्थ पारिवारिक एवं सामाजिक वातावरण मिले। शिक्षा संस्थाओं की भी यह जिम्मेदारी है कि वे बालकों और किशोरों की ऊर्जा व क्षमता को सही रचनात्मक दिशा दें,ताकि वे भौतिक व आत्मिक विकास में संतुलन बनाने की कला सीख सकें। बच्चों को खेलने-कूूूूदने, मनोरंजन करने,शौक को पूरा करने के लिए भी समय दिया जाना चाहिए।
बच्चों का समझदार बुज़ुुर्गों यथा नाना-नानी,दादा-दादी के सानिध्य मेंं रहना भी उनकेे विकास मेें सहायक होता है। किसी अन्य बच्चे से की गई अनुचित तुलना भी बालमन को दुष्प्रभावित करती है। बच्चों पर कुछ भी लादना-थोपना सही नहीं माना जा सकता। इससे भी माता-पिता को बचना चाहिए,क्योंकि हर बालक की अपनी मौलिकता होती है,जिसके पल्लवित-पोषित होने व निखरने-बिखरने से ही बालक का सर्वागीण विकास हो सकना संभव है।

परिचय-प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे का वर्तमान बसेरा मंडला(मप्र) में है,जबकि स्थायी निवास ज़िला-अशोक नगर में हैL आपका जन्म १९६१ में २५ सितम्बर को ग्राम प्राणपुर(चन्देरी,ज़िला-अशोक नगर, मप्र)में हुआ हैL एम.ए.(इतिहास,प्रावीण्यताधारी), एल-एल.बी सहित पी-एच.डी.(इतिहास)तक शिक्षित डॉ. खरे शासकीय सेवा (प्राध्यापक व विभागाध्यक्ष)में हैंL करीब चार दशकों में देश के पांच सौ से अधिक प्रकाशनों व विशेषांकों में दस हज़ार से अधिक रचनाएं प्रकाशित हुई हैंL गद्य-पद्य में कुल १७ कृतियां आपके खाते में हैंL साहित्यिक गतिविधि देखें तो आपकी रचनाओं का रेडियो(३८ बार), भोपाल दूरदर्शन (६ बार)सहित कई टी.वी. चैनल से प्रसारण हुआ है। ९ कृतियों व ८ पत्रिकाओं(विशेषांकों)का सम्पादन कर चुके डॉ. खरे सुपरिचित मंचीय हास्य-व्यंग्य  कवि तथा संयोजक,संचालक के साथ ही शोध निदेशक,विषय विशेषज्ञ और कई महाविद्यालयों में अध्ययन मंडल के सदस्य रहे हैं। आप एम.ए. की पुस्तकों के लेखक के साथ ही १२५ से अधिक कृतियों में प्राक्कथन -भूमिका का लेखन तथा २५० से अधिक कृतियों की समीक्षा का लेखन कर चुके हैंL  राष्ट्रीय शोध संगोष्ठियों में १५० से अधिक शोध पत्रों की प्रस्तुति एवं सम्मेलनों-समारोहों में ३०० से ज्यादा व्याख्यान आदि भी आपके नाम है। सम्मान-अलंकरण-प्रशस्ति पत्र के निमित्त लगभग सभी राज्यों में ६०० से अधिक सारस्वत सम्मान-अवार्ड-अभिनंदन आपकी उपलब्धि है,जिसमें प्रमुख म.प्र. साहित्य अकादमी का अखिल भारतीय माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार(निबंध-५१० ००)है।