डॉ. उषा किरण
मेरठ (उत्तरप्रदेश)
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कुछ रास्ते कहीं भी जाते नहीं हैं,
किसी मंजिल तक सफर कुछ
कभी पहुँचाते नहीं हैं,
चल रहे हैं क्यूँकि
चल रहे हैं सब,
फितरत है चलना…
तो चले जा रहे हैं…।
जब भी देखा पलट कर,
वहीं खड़े थे
जबकि सालों-साल,
बा-राह हम चलते रहे थे
ठीक,सफर में जैसे,
मीलों साथ दौड़कर भी
पीछे छूटे दरख्त,
वहीं तो खड़े थे
हाँ,उड़ जाते हैं बेशक
सहम कर परिंदे जरूर,
क्षितिज के पार चमकती
रौशनी के करीब…।
माना कि चल रहे हैं साथ,
चाँद,सूरज,सारे सितारे
कहाँ पहुँचे कभी,
वहीं खड़े हैं
आज भी सारे,
कायनात में शामिल है
हमारा भी नन्हा-सा वजूद,
कदम मिला हम भी
बस यूँ ही चले जा रहे…।
कुछ ख्वाबों की परछाइयाँ,
आँखों के सागर में
मुसलसल डोलती हैं,
कैसे कह दें कि
ख्वाब हम नहीं देखते हैं,
दिल के बागानों में पलती
खुशबूएँ दिखती तो नहीं
हाँ,पर साथ चलती हैं,
रुकती भी नहीं…!
ये जानती हूँ लेकिन,
कुछ मुसाफ़िर
माना कि दिखते नहीं,
पहुँचते हैं जरूर
बताते हैं ये,
पानियों में बन्द सफर
नदिया सागर तक पहुँच,
सागर हो जाती है जैसे
खुद एक दिन…।
कहीं पहुँचने की जिद,
हमारी भी कम तो नहीं
पहुँचेंगे जरूर,
बस ये जानते हैं
साध लूँ साज पर,
आज कोई रुहानी सुर।
ख़ामोश पानियों का सफर,
चलो हम भी करते हैं…॥